पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१५

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१३२ और राजवंश वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि पूर्व काल के सप्त सिन्धु के निवासी आर्च किस प्रकार पढ़ने पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण जाकर अपना राज्य स्थापन, संस्कृति विस्तार और अपने नाम पर उन नवीन राज्यों और नगरों का नामकरण करते थे । निन्यानवे अध्याय में तुर्वसुवंश वर्णन में यह दिखाया गया है कि ययाति पुत्र तुर्वसु के वंशलोप होने पर पुरुवंश दत्तक पुत्र स्वीकार किया गया। उसी दत्तक पुत्र की कुमार अगली पीढ़ी में जनापीड उत्पन्न हुये जिनके पांडय, केरल, चोल और कुल्य हुए, जिन्होंने सदूर दक्षिण जाकर पांड्य, केरल, चोल और कुल्य राज्यों को स्थापित किया । उसी वंश में गांधार नामक राजा हुआ जिसके नाम से गान्धार जनपद प्रशिद्ध हुआ। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में भारतीयों के हृदय में नवीन उपनिवेश बसाने और संस्कृति प्रचार का उत्साह सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के यूरोपीय लोगों के समान था । ऋषिवंश, इक्ष्वाकुवंश और पुरुवंश के वर्णन से वैदिक काल से लेकर पुराण काल तक के राजाओं और ऋषियों की परम्परा का बहुत कुछ परस्पर संगत ज्ञान प्राप्त हो जाता है । अर्जुन की वंश परम्परा का वर्णन उस उदयन तक भविष्य कथन के रूप में किया गया है जो गौतम बुद्ध का समकालीन था । इस प्रकार गौतम बुद्ध के पूर्व के इतिहास पर इस वंश परम्परा वर्णन द्वारा एक हल्का सा प्रकाश पड़ता है। यदि पुराणों पर वह अविश्वास न रखा जय, जो बहुत कुछ अपनी संकीर्ण भावनाओं और पाश्चात्य इतिहासज्ञों को ही सब कुछ मान लेने के कारण है तो बहुत कुछ अतीत की सामग्री इन पुराणों से प्राप्त की जा सकती है । इसलिये पार्शीटर आदि कतिपय यूरोपीय विद्वान् भी पुराणों की राजवंश परम्परा को इतिहास के लिये उपयोगी सामग्री मानते हैं । भारतीय विद्वानों ने भी अब शनैः शनैः इयर €यान देना प्रारंभ किया है । यदि पुराणों की ऐति हासिक सामग्री प्रकाश में लाई जाय तो इससे बहुत कुछ इतिहास और समाज को कल्याण हो सकता है । प्राचीन आर्यों की ऐतिहासिक खोजों और अन्तर्राष्ट्रीय भावनाओं से आज की सामाजिक परम्परा के नवनिर्माण में भी सहायता प्राप्त हो सकती है । काव्य सौन्दर्य इस पुराण में काव्य-सौन्दर्यं ऍड़ना इतिहास में काव्यात्मक सौन्दर्यं ढूढ़ने के समन है । इसमें मानव जीवन के उपयोगी तथ्यों को प्राप्त किया जा सकता है, भावनाओं को नही । यहाँ तो सूतजी, सृष्टि, विसृष्टि और पाशुपत योग वर्णन में व्यस्त हैं, उन्हें हृदय को रमाने वाले स्थलों और सामग्रियों को लाने का अवकाश कहाँ ? उनके सामने तो शौचाचरपरमाश्रमविधि, कल्पसंख्या, भुवनविन्यास आदि से संबंध रखने वाले प्रश्नों की झडियाँ लगी हैं । परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं कि यह पुराण काव्यात्मक आनन्द और सौन्दर्य से सर्वथा शून्य है । स्तुति, ऐश्वर्य-वर्णन, गन्ववों के रूप-वर्णन प्रसंग में सूत जी ने उपमाओं का उपयुक्त प्रयोग किया है । भुवनविन्यास प्रसंग में तो मेरुगिरि का वर्णेन करते समय स्वर्णाभ पर्वतशिखरों को मृदु पञ्जपत्रों की तुलना में रखते हुये उनको तनिक भी संकोच नहीं होता है । चन्द्रप्रतीकाशा पूर्णचन्द्रनिभानना (पूर्णचन्द्र के समान मुख वाली) गन्धर्वं कुमारियों के वर्णन और मानसरोवर के रन जटित सपान से उत्तरती हुई अप्सराओं के सौन्दर्य का आकर्षण और उनकी भावभंगिमा उन्हें भी आकृष्ट करती है । हरिवर्प और केतुमल के वर्णन में प्राकृतिक छटा और श्वेतनील शिखरवाले शिखरियों की शोभा का मनोहारी वर्णन किया है । वलय, अंगट