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[ पश्चमो- - ( ८४ ) रुद्राष्टाव्यायो - भाष्यम् - (च) (पर्णाय) पत्ररूपाय (च) (पर्णशदाय) पतितपर्णावस्थानक ( नमः ) नमोऽस्तु ( च ) ( उद्धरमाणाय) उद्यमशीलाय ( च ) ( अभिनते ) अभि- हान्त शत्रूनित्यमिघ्नन् तस्मै ( नमः ) नमोऽस्तु ( च ) ( आखिदते) आसमंतात् खि- द्यते दैन्यं करोत्यभक्तानामित्याखिदन तस्मै ( च ) ( मखिदते ) प्रकर्येण खेदयाते पापिनामिति प्रखिदन् तस्मै ( नमः) नमोऽस्तु ( च ) (इपुष्कृय: ) ये इपवो बाणान कुर्वन्ति तेभ्यः ( च ) ( धनुष्कृय: ) ये यूर्य धनुष्कृतस्तेभ्य: ( वः ) ( नमः ) नमोऽस्तु वो युष्मदादेशात्प्रत्यक्षा एते रुद्राः तिस्रोऽशीतयो रुद्राः समाप्ताः । एवं चला- रिंशदधिकशतद्वयमन्त्रै रुद्रस्य सर्वात्मत्वमुक्तम् । इदानीं रुद्राणां हृदयभूनानामग्निवायु- सूयाणां सम्बन्धीनि यजूंषि उच्यन्ते (व: ) युष्मभ्यम् ( नमः ) नमोऽस्तु केभ्यः { ( किरिकेभ्य: ) कुर्वन्तीदं जगदृष्ट्यादिद्वारेणेति किरिका: वाशिसूर्या:: (देवानां हृदयेभ्यः ) देवानामग्रियां हृदयमृता इत्यर्थः । (नमः) नमोऽस्तु (वि चिन्वत्केभ्यः ) विचिन्वन्ति पृथकुर्वन्ति धर्मकारिणं पापकारिणं चेति विचिन्वत्कः चरे-यः (नमः) नमोऽस्तु ( विक्षिण केभ्यः ) विविधं दिण्वन्ति हिंसन्ति पापामेति विक्षि गत्कास्तेभ्योऽध्यादिभ्यो नमः (आनियः ) या समन्तानिर्गताः सर्गादी लोकेभ्य इत्यानिईतास्ते+यो नमः । इन्तिर्गत्यर्थः । ("तेभ्यस्ततेभ्यस्त्राणि ज्योतीर्ट प्यजायन्ता शिर्योऽयं पवते सूर्य : " ) इतिश्रुतेः ॥ ४६॥ भाषार्थ- पर्णमें विद्यमानके निमित्त और पर्णपतित पर्णस्थित देशरूप वा पर्ण में उत्पन्न का यदि में भी विद्यमान के निमित्त नमस्कार है निरन्तर द्यमी उत्पन्न करनेवाले के निमित्त और शत्रुओंके संहारक के निमित्त नमस्कार है, अभक्तोको सदा दुःखवाता विविधताप प्रेरकके निमित्त और त्रिविध तापके उत्पन्नकर्ता वा पापियोंको अतिदुःखदायीके निमित्त नम स्कार है, बाणको उम्पन्न करनेवालेके निमित्त और धनुषके करनेवाले रुद्ररूप आपके निमित्त नमस्कार है ( युष्मदादेशसे यह प्रत्यक्ष रुद्र है, यहां २४० पूर्ण हुए ) ( यहृतिक रुद्रको प्रधानता कहकर अब प्रधानभूत अग्नि वायु सूर्यादिरूपले वर्णन करते हैं) प्रथम यजु १४ का और तीन साल अक्षरके व्याहतिज्ञक है, जो देवताओं के स्वरूप प्रधान अग्नि सूर्यके हद- यरूप वृष्टयादि द्वारा जगत्को उजन करते हैं, ऐसे भाप निमित्त नमस्कार है, जो देवता देवताओं के हृदयस्वरूप हैं, जो दृष्टिआदिले जगत्का पालन करते, जो धर्मात्मा और पापा- रमाओंको पृथक् करते हैं उन अग्नि, वायु और सूर्यके हृदय के निमित्त नमस्कार है, विविधपापों को दूर करनेवाले अग्नि आदिके निमित्त नमस्कार है, अर्थात् जो देवताओंका दु: यस्वरूप विक्षिणत्क वृष्टि आदि जगत्का संहार करते हैं आने वायु सूर्यके हृदय स्वरूप जनके निमित्त बारबार नमस्कार है सृष्टिको आदिमें होनेवाले रुद्रावतारोंके निमित्त नमस्कार ..है अर्थात जो देवताओंका हृदयस्वरूप आनिहत "काल प्राप्त होनेसे स्वयं भी गुप्त होजाता है जो सृष्टिी आदि होते है इससे आनिर्हत कहते हैं जो अग्नि, वायु सूर्यका मी हृदयस्वरूप है, उसको बारबार नमस्कार है || ४६ ॥ D और