पृष्ठम्:रुद्राष्टाध्यायी (IA in.ernet.dli.2015.345690).pdf/८३

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(७४) रुद्रायण्यायी - [ पश्चमो- नमोऽस्तु (च) ( उयय) उर्वरा सर्वसत्याढ्या भूमिस्त धान्यरूपेण भवस्तस्मै ( च ) ( खल्याय ) खले धान्यविवचनदेशस्तत्र भवस्तस्मै ( नमः ) नमोऽस्तु ॥ ३३॥ . भाषार्थ- गन्धर्वनगर में होनेवाले अथवा पुण्यपापसात वर्तमान मनुष्यलोकमें होनेवाळे {"पुण्येन पुण्यलोक नयति पापेन पापमुभाभ्यां मनुष्यलोकम्” इति ) अथवा पृथिवीलोकमें सम्पन्न होनेके समय जन्मे बालकके अन्तर देवतारूपके निमित्त भी नमस्कार विवाहादिकार्यमें हाथ में वधे मगलमूत्र में विद्यमानके निमित्त नमस्कार है । यौको दुःख देनेको यममें वर्तमान और कुशलमें होनेवाले का परलोक गये हुए प्राणीक कल्याणमें विद्यमानके निमित्त नमस्कार है, और इस ससारमें यशप्रचार के मूल वा वैदिक मंत्ररूपी यशम होनेवालेको और वैदान्त में स्थित वा जिसके प्रसाद प्राणी जन्म- मृत्युसे छुटकारा पाता है उसके निमित्त नमस्कार है, उपजाऊ भूमिमें उत्पन्न हुए धान्या- दिके अन्तरमें भो विद्यमानके निमित्त नमस्कार है और धान्यविवेचन देशमें होनेवाले के निमित्त नमस्कार है ॥ ३३ ॥ है, और और प.पि- नोवया॑य चकक्ष्या॑य चुनर्स अवार्यच [प्रतिभ्रुवाय॑च॒नम॑ऽआशुषे॑णाय चाशुरै- यायचुनमुहहूरायचावमेदिने चुनमोबि- मिनें ॥ ३४ ॥ CACT ॐ नमो बन्यायेत्यस्य कुत्स ऋषिः । स्वराडाप विष छन्दः | रुद्रो दे० | वि० पू० ॥ ३४ ॥ साध्यम् - ( बन्याय ) वने वृक्षादिरूपेण भवो वन्यस्तस्मै ( ब ) ( नमः ) नमोऽस्तु ( च ) ( कक्ष्याय ) कक्षं तृणं वल्ली वा तत्र भवः कक्ष्यस्तरमै ( नमः ) नमोऽस्तु ( च ) ( आवाय ) शब्दरूपाय ( च ) प्रतिभवाय ) प्रतिरूपाय नमः ) नमोस्तु ( च ) ( आशुषेणाय ) वासु शीघ्रा सेना यस्य सः तस्मै ( च ) ( बाशुस्थाय ) शीघ्रो रथो यस्य तः आसुर ( नमः ) नमः ( च ) ( शूभय ) युद्धगया ( च ) ( अमेदिने ) अवभेदी अर्वाचीनं भत्तुं शीलमस्येति व्यवमेदीतसमै ( नमः ) नमोऽस्तु ॥ ३४ ॥ भाषार्थ-चनमें वृक्षादिरूपसे होनेवालेके निमत्त वा घरमें विद्यमानको भी नमस्कार है, और तृणवी में होनेवाले निमित नमस्कार है, शब्दरूप वा ध्वनिमें वर्तमानके निमित नमस्कार है, और प्रतिध्वनिमें विद्यमानके निर्मित नमस्कार है, शीघ्र चढ़नेपाली सेनाकी