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ऽध्यायः ५० ] माष्यसहिता । भव्यमस्तस्मै देवातर्यगादिरूपिणे ( व्यपगलभाय ) अव्युत्पन्चेन्द्रियरूपाय, वा एक- पर्मान्तरितोऽपगल्भस्तस्मै ( नमः ) नमोऽस्तु ( च ) ( जघन्याय ) जघनं गत्रादीनां पश्चाद्भागस्तत्र भवो जघन्यस्तस्मै ( च ) ( बुध्न्याय ) बुझे वृक्षादिमूले भवो बुध्न्यस्तस्मै ( नमः ) नमोऽस्तु ॥ ३२ ॥ भाषार्थ - अतिप्रशस्य ज्येष्ठ रूपके निमित्त और अतियुवा वा कनिष्ठरूपके निमित्त नम- स्कार है। ( अर्थात् सृष्टिके आरम्भमें जो प्रथम उत्पन्न हुआ तिसके अन्तरमें भी विद्यमान सौर उसके पीछे जो कुछ हो रहा है उस सबके हृदय में भी विद्यमान होनेसे ज्येष्टकनिष्ठ रूप है) और जगत्को आदिमे हिरण्यगर्भरूप से उत्पन्न और प्रख्यकाल में काळानिरूप से होने वाले निमित्त नमस्कार है । और मष्टेिसहारके अनन्तर देवतिर्यगादिरूपसे होनेवाले के निमित्त नमस्कार है, (अर्थात् प्रथम गर्भाधान में बालकके रक्षकरूपसे उस बालकके आत्मा- का आत्मा होकर गर्भ में क.स करके इस वाळकके साथ ही उत्पन्न होता है तिसके उपान्तर गर्भाधान में भी और गर्भ में भी इसी प्रकार इसको प्रथम द्वितीय तथा सपूर्ण ही सन्तान कहा जाता है ) और अप्रगल्भ अव्युत्पन्न इद्रिय प्रकाशरहित अण्डरूपके निमित्त नमस्कार और रावाविके पश्चद्भागमें होनेवाले स्वेदन कृमि कीटआदिमें वर्तमानके निमित्तं नमस्कार तथा वृक्षादिके मूलमें होनेवाले के निमित्त नमस्कार है ॥ ३२ ॥ विशेष-यह सवयवविधायक नमस्कार है |॥ ३२ ॥ मन्त्रः । नमुत्सोन्यायचप्प्रतिसुष्यायच नमोया- यय चक्षेम्म्याय चुनमुहश्लोक्क्यायचा- दाभ्यायन खल्ल्य नमोधन्याय ॥ ३३ ॥ ॐ नमः सोभ्यायेत्यस्य कुत्स ऋषिः | आप त्रिष्टुप्छन्दः । रुदो देवता | वि० पू० ॥ ३३ ॥ माध्यम् (सोभ्याय ) सोमं गन्धर्वनगरं तत्र अवस्तस्मै यद्वा सोभ्यः उमाम्यां पुण्यपापाभ्यां सहितः मनुष्यलोकस्वत्र मवः सोभ्यस्तस्मै ( च ) ( प्रतिसर्थ्याय ) प्रति- सरो विवाहोचितं इस्वसूत्रमभिचारो वा तत्र भवस्तस्पै ( नमः ) नमोऽस्तु ( च ) ( याम्याय) पापिनां नरकार्तिदाता तस्मै ( च ) । याय) क्षेमे कुशले भवः क्षेम्यस्तस्मै ( नमः ) नमोऽस्तु ( च ) ( श्लोक्याय ) श्लोका वैदिक मंत्रा यशो वा तत्र भवः श्लोक्य- स्वस्मै ( च ) ( अवसान्याय ) व्यवसानं समाप्तिवेदान्तो वा तत्र भवः तस्मै ( नमः )