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ऽध्याय: ५० ] भाष्यसहिता । गोपालतक देखते हैं, जळ ले जानेवाली नारी भी दर्शन करती हैं, वह रुद्र दर्शनपथमें प्रातः होते ही हमको सुखी करें। सूर्य्यमै नीलिमा आकाशकी नीलतासे कही है। गोष्ठमें गोपाळ नदी आदि तीरपर पनिहारी इनकी शोमा अतिशय देखती हैं। पक्षान्तरमै-इन्द्रियगोलकों की रक्षक इन्द्रियशक्ति गोप, और अमृतकी प्राप्त करनेवाली प्राज्ञशक्ति उदवहारी है ॥ ७ ॥ मन्त्रः । नमस्तुनील॑ग्ग्रीवायसहस्राक्षाय॑मु॒दुषे॑ ।। अथो॒ोवेऽअ॑स्य॒सत्त्वा॑नि॒नो॒हन्तेभ्यो॑कन्नम॑÷८ ॐ नमोरित्त्वत्यस्य प्रजापतिऋषिः । नियृदायेनुष्टुप् छन्दः रुद्रो देवता | वि० पू० ॥ ८ ॥ भाष्यम् - ( नीलग्रीवाय ) नीलकण्ठाय ( सहस्राक्षाय ) सहस्रमक्षीणि यस्य इन्द्र- स्वरूपिणे ( मीढुषे ) वृष्टिकर्त्रे पर्जन्यरूपाय ( नमः ) नमस्कारः ( वस्तु ) भवा (अ) (अस्य ) रुद्रस्य ( ये ) (सवान:) प्राणिनः सेवकाः सन्ति (तेभ्यः) ( व्यहम् ) स्तुतिकर्ता (नमः ) नमस्कारं ( अकरम् ) करोमि ॥ ८ ॥ भाषार्थ - नीलकण्ठ, सहस्रनेत्र, सब जगत को देखनेवाले, अथवा इन्द्रस्वरूप वा बहु रश्मि- रूप सेचन में समर्थ पर्जन्यरूप रुद्रके निर्मित नमस्कार हो । और रुद्रदेवता के जो अनुच- रविशेष हैं, मेषादि राशि है, जूनके निमित्त मै नमस्कार करता हूँ | तारपर्यं यह यह सबही शिवरूप है सबमें रुद्र वर्तमान हैं ॥ ८ ॥ मन्त्रः । प्रमु॑ञ्च॒धन्य॑ न॒स्त्वम॒मय॒ोरात्त्म्यम याश्वते॒हस्त॒ऽइष॑व॒त्पराताभंगवोचप ॥९॥३ ॐ प्रमुञ्चेत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः । सुरिंग युष्णिक छन्दः 6. रुद्रो देवता | वि० पू० ॥ ९ ॥ भाष्यम् - (भगवः ) हे भगवन् परमैश्वर्यसम्पन्न ( धन्वनः ) धनुषः ( उमयोः द्वयोः (माय:) कोटयोः स्थिताम् (ज्याम् ) मौवम् ( खं ) ( प्रमुञ्च ) दूरीकुछ ( च ) ( याः ) ( ते ) तव ( इस्ते ) करे ( इषवः ) बाणा: सन्ति (ता: ) शरान् ( परावपु ) पराक्षिण ॥ ९ ॥ भाषार्थ-डे परेश्वर्यसम्पन्न भगवन् ! आप धनुषकी दोनों कोटियों में स्थित ज्याको दूर कर अर्थात् उतार को। और जो आपके हाथ में बाण हैं उनको दूर ध्यागदो हमारे निमित्त सौम्य- मूर्ति हो जाओ। हमारे लिये किसी प्रकारका रोग शोक न हो यही आपसे प्रार्थना है ॥ ९७.