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sध्याय: ५. ३ भाष्यसहिता । मन्त्रः | अर्द्धयवोचदधिवक्ता प्रथुमोध्योभषक् ।। अहाँ सर्वाम्भ्युत्सवां व यातुधान्योष राची परांसुव ॥ ५ ॥ ॐ अध्यवोचदित्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः । भुरिगार्षी बृहती छन्दः । रुद्रो देवता | वि० पू० ॥ ५॥ आष्यम् ( अधिवक्ता ) अधिवेदनशील निगमकयनतत्पुर: ( प्रथमः ) पूज्य- त्यात्सर्वेषां मुख्यः ( दैव्य, ) देवेभ्यो हितः ( भिषक ) स्मरणेनैव रोगनाशको रुद्रः ( अभ्यवोचत् ) मां सर्वाधिकं वदति, अयं याजकः सर्वाधिको भवस्विति । परोक्ष - कृत्वा प्रत्यक्षमाह-हे रुद्र ! ( च ) ( सर्वान् ) सम्पूर्णान् ( व्यहीन ) सर्पव्याघ्रादीन ( जम्भयत्) विनाशयन् ( सर्वाः ) समस्ताः ( अधराची: ) अधोधोगमनशीलाः ( यातुधान्यः ) राक्षसी: ( च ) ( परासुव ) अस्मत्तो दूरीकुरु ॥ ५ ॥ भाषार्थ-अधिकायनशील सर्वदा निगम कथन करनेवाले, सय देवताओं में मुख्य, पूजनीय देवताओं के हितकारी, स्मरण ही ससार तथा जन्म मरणके रोगनाशक रुद्र हमको सबसे अधिक करें, मां सबसे अधिक करें । और सब सर्प व्याघ्र आदिको विनाश करते हुए सपूर्ण अघोगमनशोक राक्षसी आदिको भी हमसे दूर करो ॥ ५ ॥ अध्यात्म-परमात्मा हमको महाशक्यका उपदेश करो और सर्पके समान डसनेवाले काम आदिको नाश करो, और अधोगमनशील कामकलारूपी राक्षसियों को दूर करो. अथवा संपूर्ण विद्याओं के कहनेसे ही यह सबमें श्रेष्ठ गिने जाते हैं, इसीसे दिव्यगुणयुक्त ज्ञान स्टे सबके संसारी रोगके दूर करनेव.खे है ॥ ५ ॥ जडवादी कहते हैं कि, गर्नन ही प्रधान शब्द है । अति दृष्टि होने से ज्वरादि रोग और सपका प्रादुर्भाव होता है इनस मृत्युसख्या अधिक होने की सभावना है, प्रेतभय उपस्थित न हो इस कारण तीनों भयके निवारण करने के निमित्त रुद्रदेव से प्रार्थना है ॥ ५ ॥ मन्त्रः । अ॒सौवराम्रोऽभ॑रु॒णऽ उत्तबुन्नुः सुमनलं+ ये चैनसुश्रुताः संहसु- शेवैषु ुहेऽऽईमहे ॥ ६ ॥ BK2