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(५९) रुद्राष्टाध्यायी [ पश्चमो- भाष्यम् - (गिरिशन्त ) देव ( याम् ) ( इघुम् ) शरम् ( व्यस्तवे ) पान क्षे ( हस्ते ) करे ( विमर्पि) धारयसि ( गिरित्र ) गिगे कैलासे स्थित्वा भूतानि त्रायते इति तत्सबुद्धि: ( तामू ) वाणम् ( शिवाम् ) कल्याणकारिण ( कुरु ) कि ( पुरुषम् ) पुत्रपौत्रादिकम् (जगत् ) जंगममन्यदपि गवाश्वादिकम् ( माहिर्टन्सीः ) आवधीः सर्वथाऽस्मद्गे शान्ति कुर्वित्यर्थः ॥ ३ ॥ भाषार्थ~हे वेवाणीमें स्थित 1 वा पर्वतपर उदित मेघवृन्दके अन्तर स्थित होकर जग- तका कल्याण करनेवाले कैलास वा वेदवाणी में स्थित होकर प्राणियोंकी रक्षा करनेवाळे तुम जिस बाणको शत्रुओंके नाश वा प्रख्यमें जगतके अस्त करनेको हाथ में धारण करते हो, दे रक्षक ! उस बाणको कल्याणकारी करो | पुत्र पौत्र भादि जगतके गयाश्वादिको मत मारो, अर्थात् मकालमें हमको और इस संपूर्ण जगत् को नष्ट मत करो ॥ ३ ॥ विशेष-गिरिशृङ्ग में जो रहते है निम्नभागके मेघोपद्रव उनका अनिष्ट नहीं करसकते इस निमित्त अघश्वारी दुर्घटनाके अन्तर स्थित देवताको गिरित्र कहते हैं। यह तस्यवादी जन कहते हैं ॥ ३ ॥ मंत्रः । शिवेन॒वचसात्वागिरि॒शाच्छवदामसि ।। अर्थात् समयमाऽअस॑त् । ॐ शिवेनेत्यस्य परमेष्टी ऋषिः । निच्यृदाप्यनु० छं० | रु० दे० । वि० पू० ॥ ४ ॥ माण्यम् - (गिरिश ) गिरौ कैलासे शेते गिरिश: तत्सम्बुद्धी हे गिरिश (शिवेन ) मंगलरूपेण ( वचसा ) चचनेन ( त्वा ) त्वामू ( अच्छ) प्राप्तम् ( वदामसि ) वदामः आर्थयामहे ( नः ) अस्माकम् ( सर्वम् ) सम्पूर्णम् ( जगत ) जंगमं मनुष्यपश्वादि ( यथा ) येन प्रकारेण ( वयक्ष्मम् ) व्याधिरहितम् (सुमनः) शोभनं मनः ( असत् ) तथा कुर्वित्यर्थः ॥ ४ ॥ भाषार्थ - हे वेदवचन वा कैलासभ शयन करनेवाले । मंगळ स्तुतिरूप वचनसे तुमको प्रात होनेको हम प्रार्थना करते हैं। हमको सवही जंगम, मनुष्य, पशु आदि जिस प्रकार नीरोग शुभमनवाला हो सो करो, अर्थात् यह नगत स्वस्थ और रोगरहित हो । यही आपसे हमारी प्रार्थना है सो स्वीकार करो ॥ ४ ॥ विशेष- जिसका उदष सर्वदा ही पर्वत पृष्ठपर देखा जाता है, ऐसे मेघकै अन्तर स्थित देव- ताको गिरिश कहते हैं, यह तत्ववादी जनोंका कथन है। तात्पर्य यह है कि रुद्रदेवता सर्वत्र विद्यमान है वह जगत में मगल करें मजा में कोई रोग न हो ॥ ४ ॥