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sध्याय: ५० ] भाष्यसहिता । ॐ यात इत्यस्य परमेष्ठी ऋषि: । आषों स्वराडतुष्टुप्छन्द रुद्रो दे० | वि० पू० ॥ २ ॥ भाष्यम्- (रुद्र ) हे देव ( या ) ( ते ) तव (अघोरा ) सौम्या (अपापकाशिनी ) पापमसुख काशयति प्रकाशयति पापकाशिनी न पापकाशिनी या भक्तानाम् पुण्यफल- मेव ददाति न पापफलामेत्यर्थः । ( शिवा ) शान्ता मंगलरूपा ( तनूः ) शरीरमस्ति ( गिरिशन्त) कैलासवासी गिरौ कैलासे स्थितः प्राणिनां शं सुखं विस्तारयति वा गिरि चाचि स्थितः शं तनोति वा गिरौ मेघे स्थितो वृष्टिद्वारेण शं तनोति वा गिरौ शेते गिरि- शः श्रमति गच्छति जानातीति वा व्यन्तः सर्वज्ञः, 'अमगतौ' भजने शब्दे कर्तरि क्तः गिरिशश्वासावन्तश्च गिरिशन्तस्तसम्बुद्धिः शकन्ध्वादित्वात्पररूपम् | ( तथा ) ( शन्तमया) सुखतमया ( वन्चा ) शरीरेण ( नः ) अस्मान् ( अभिचाकशीहि ) अभिपश्य ॥ २ ॥ भाषार्थ-कैलास पर्वत पर स्थित होकर प्राणियोंके सुखको विस्तार करनेवाले अथवा गाणी में स्थित होकर सुखका विस्तार करनेवाले, अथवा मेघमें स्थित होकर वर्षाध्यदिके रूपसे सुख- को विस्तार करनेवाले, वा पर्वतपर शयन करनेवाले सर्वज्ञ, हे रुद्र ! जो तुम्हारा शान्त मंग- रूप विषमतारहित-होनेसे सौम्य पाप फलको न देकर पुण्यफलका हो वेनेवाला शरीर है, उस सुखमरे शरीरसे हमको अवलोकन कीजिये ॥ २ ॥ विशेष-जो सर्वव्यापी साधमाका भी आत्मा है दृश्य अदृश्य सपूर्ण शरीरोंमें उसकी स्थि ति है केवळ तत्त्व विचारवाले कहते हैं कि, इस स्थलमै रुद्रका भेषोदयरूप शरीर देखने की प्रार्थना है, किन्तु जिससे गृहपतन और बाढकी प्राप्ति हो उसके उदयकी प्रार्थना नहीं है- किन्तु जिसके उदयसे कृषिआदिको उन्नति हो उसीकी प्रार्थना है। यहाँ रुद्रका कल्याणमध शरीर और कैलासवास होनेसे शिवका विग्रह भी कथन किया है, अथवा है रुद्र कल्याणकारी विस्तार मनोहर है, पापको दूर करके हमको महामुख दो। इससे सगुण ब्रह्म- प्रतिपादित है ॥ २ ॥ आपका मन्त्रः । वामिपुंङ्गिरिशन्तु हस्तैबिमुर्ष्यस्त॑वे ।। शिवाङ्गि॑िरित्रुताड्डुरुमाहर्टसी० पुरुषुअ- गत् ॥ ३ ॥ ॐ यामिषुमित्यस्य परमेष्ठी ऋषिः । विराडार्ण्यनुष्टुप् छं० । रुद्रो देवता | वि०५० ॥ ३ ॥