पृष्ठम्:रुद्राष्टाध्यायी (IA in.ernet.dli.2015.345690).pdf/५९

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(90) [ पश्चमो- रुद्राष्टाध्यायी - अथ पंचमोऽध्यायः | मन्त्रः । ॐ नम॑स्तेरुद्रमुन्नृपव॑ऽउ॒तोतुऽइष॑वे॒नमः॑ ॥ बाहुन्या॑मुतत॒नम॑+ ॥ १ ॥ ॐ नमस्त इत्यस्य परमेष्ठी ऋषिः | गायत्री छन्दः । रुदो दे० । पाठे विनियोगः ॥ १ ॥ माष्यम् - हे रुद्र ! यद्रोदनं रु दुःखं द्रावयति रुद्रः | यहा रुद्रमुपशान्तयति, ये गत्य- यौस्ते ज्ञानार्थी: स्वर्ण रुत् ज्ञानं भावे कि तुगागमः । रुत् ज्ञानं राति ददातीति रुद्रः मोहनिवारकः परमेश्वरः । यद्वा - पापिनो जनान् दुःखमोगेन रोदयतीति रुद्रः जगच्छा. कः | हे रुद्र ( त ) तब (मन्यवे) रोपाय (नम:) नमस्कारोऽस्ट (उत ) आप (ते ) रूष (इषवे) शराय ( नमः ) नमस्कारोऽस्तु ( उत ) अपि च ( ते ) तब ( वाहू- स्याम् ) भुजाभ्याम् ( नमः ) नमः तव क्रोधमाणहस्ता ध्यस्मच्छत्रुप्चेव पतन्तु नास्मा- स्वित्यर्थः । [ यजुर्वेदीयपोडशोऽध्यायः ] ॥ १ ॥ 1 भाषार्थ-हे दुःखके दूर करने अथवा ज्ञानके देनेवाले अथवा पापी जनोंको उनका कर्मफक कर रुलानेवाळे रुद्रदेव | आपके क्रोधके निमित्त नमस्कार है और तुम्हारे वाणोंके निमि- लनमस्कार है ! और तुम्हारी दोनों भुजाओंके निमित्त नमस्कार है, अर्थात् हे रुद्रदेव आपका कोष और बाणधारी हस्त शत्रुओंपर पडे हमको शान्ति हो ॥ १ ॥ विशेष-सत्ववादी मेघोंके अन्तर शक्तिमय रुद्रका निवास कहते हैं | कि गर्जना एनका ऋोष है। उल्कापात बाण है, समुद्र में उठे तरग एक भुजा, और महाधारा वपी सनकी इसरी भुजा-रूप हैं | उससे शत्रुओंका अनिष्ट हो और हमको मंगल हो । अयश - पापि ओके नाशको तुम बाण और क्रोधरूप हो । इस अध्याय में परमेश्वरका सगुणनिर्गुणरूप म पोपासना से वर्णन किया है ॥ १ ॥ मन्त्रः । या रुद्रावातुनरघोरापापकाशिनी ॥ तया॑नस्त॒न्वा॒शन्त॑मया॒गिरि॑िशन्ता॒भिचा॑ कशीहि ॥ २ ॥