पृष्ठम्:रुद्राष्टाध्यायी (IA in.ernet.dli.2015.345690).pdf/६

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भूमिका | (३) भवति तस्मादविमुक्तमाश्रितो भवति याश्रमी सर्वदा सकृद्रा जपेदनेन ज्ञानमामोति संसारार्णवनाशनं 'सस्मादेवं विदित्वेनं केवल्यं फलमश्नुते' इत्याह शातातपः ] अर्थ - जो शतरुद्रिय पाठ करता है वह जैसे व्यग्निसे निकाले पदार्थ सुवर्ण व्यादि पवित्र होजाते हैं, तद्वत् पवित्र होता है, सोनेको चोरीके पापसे छूटजाता है, सुरापान के पापसे रहित होता है, ब्रह्महत्या से पवित्र होताहै, कृत्याकृत्य से पवित्र होता है, आश्रम- त्यागी भी एकवार पाठमात्रसे पवित्र होता है, इसके जपले ज्ञानको प्राप्ति होती है, संसारसागरसे पार होजाता है। इस कारण इसको जानकर कैवल्य की प्राप्ति होती है इस प्रकार शातातप कहते हैं। [ स्तेयं कृत्वा गुरुदारांव गत्वा मद्यं पीखा ब्रह्महत्यां च धृत्वा । सस्मच्छन्नो भस्मशय्याशयानो रुद्राध्यायी मुच्यते सर्वपापैरिति ] व्यर्थ - सुवर्णकी चोरी, गुरुबीमें गमन, मद्यपान, ब्रह्महस्यादि पाप करके सर्वांगमें भस्म लेपन करके अस्ममें शयन करनेवाला सहाध्यायीके पाठसे सब पापोंसे टमाताहै। याज्ञवल्क्य कहते हैं ( सुरापः स्वर्णहारी व रुद्रजापी जले स्थितः । सहस्रशोर्पा- जापी च मुच्यते सर्वकिल्विः ।) अर्थात् मद्य पीनेवाला सुवर्णकी चोरी करनेवाला जो जलमें स्थित होकर रुद्राध्यायका जप करताहै, तथा सहस्रशीर्षा इस अध्यायको पढता है, वह सब, पापौसे छूटजाताहै । तथा च - ( ट्रैकादाशनों जप्वा तद्द्वैव विशु- भ्यति ) व्यर्थात् - एकादश वार रुद्रजापसे उसी दिन शुद्ध होजाता है। महात्मा शङ्खजी कहते हैं ( स्वर्णस्तेषी रुद्राध्याची मुच्यते ।) अर्थात् सुवर्णस्तेयी रुद्राध्यायके पाठसे मुक्त होता है। "तथा च वायुपुराणे-- यश्च रुद्राञ्ज पेन्नित्यं ध्यायमानो महेश्वरम् । यश्च सागरपर्यंत सशैलवनकाननाम् ॥ १ ॥ सर्वान्चारमगुणोपेतां सुवृक्षजलशोभिताम् । दयारकाञ्चनसंयुक्तां भूमि चौषधिसयुताम् ॥ तस्मादण्यधिकं तस्प समुद्रजपावेत् || २ || अन्य मावं समुत्सृज्य यस्तु रुद्राञ्जपेरसदा || स तेनैव च देहेन रुद्रः संजायते ध्रुवम् ॥ ३ ॥ 39 + अर्थ-वायुपुगण में लिखा जो महेश्वरका ध्यान करता हुआ एकवार रुद्रीका जप करता है उसको, जो शैल बन कानंनके सहित, सर्व श्रेष्टगुणों से युक्त, अच्छे जहाँसे शोभिए, सुवर्ण और औषधिसहित, समुद्रपर्यंत पृथिवीको दान