पृष्ठम्:रुद्राष्टाध्यायी (IA in.ernet.dli.2015.345690).pdf/५

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(२) भूमिका | इसमें कुछमी संदेह नहीं कि इसमें गृहस्थधर्म, रामधर्म, ज्ञान, वैराग्य, शान्ति, ईश्वरस्तुति आदि बनेक, सर्वोत्तम विपर्योका वर्णन है। ' 99 4 वेदमंत्रोंका विनियोग, पर्थ, ऋषियोंका सारणादि जाननेका माहात्म्य ज्याझवा और अनुक्रमणिका विशेष रूप से वर्णन किया है, अर्थ और विनियोगको जानकर जो कार्य कियाजायगा वह कल्पवृक्षकी समान विशेष रूप से फलदायक होताई इससे अर्थका ज्ञान व्यवश्य होना चाहिये। जैसे “हे रुद्र दत् दुःखं द्रावयति रुद्रा । यहा 'रुगती' ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्थाः खणं रुत् ज्ञानम् भावे किपू तुगागमः । रुत् शानं राति ददाति रुद्रः ज्ञानप्रदः । यद्वां- "पापिनो नरान् दुःखभोगेन रोदयति रुद्रः इस प्रकार व्अर्थके ज्ञानसे विशेष प्रतिपात होनेसे श्रुति में भी विशेषफल प्रतिपादन किया है [ उतत्वः पश्यन्न ददर्शवाचमुतत्वः शृण्वत शृणोत्येनाम् उतोत्वस्मै तन्वं विसस्त्रे जायेव पत्य दशती सुवासा: ] इत्यादि मंत्रों में अर्थज्ञानकी प्रशंसा सुनी है, और [यदू गृहीरामविज्ञास निगदेनैव शब्यते । अनाविव शुष्कंधो न तज्ज्वलति कहिँचित् ] इत्यादि वाक्यों के द्वारा अर्थ न जाननेकी निन्दा सुनी है । दूसरा वचन भी निरुक्तमें लिखा है [ स्थाणुरयं भारहारः किलाभूदधीत्य वेदं न विजानाति योऽर्थम् | योऽर्थज्ञ इतः सकलं भद्रमश्नुते नाकमेति ज्ञानविधूतपाप्मा ] अर्थात जो वेद पढकर उसका अर्थ नहीं जानता वह ढूँठकी समान भार ढोनेवाला है। और जो व्यर्थको जानता है वह सप कल्या- र्णोको प्राप्त होता है। और पापरहित हो वैकुण्ठको प्राप्त होता है, इस वचनोंसे अर्थका मानना सम्पूर्ण कल्याणोंका करनेवाला है। जो कहते हैं कि “ स्वाध्यायोऽध्येतव्यः इस वचनसे पाठमात्र से ही कर्मानुष्ठान में सफलता होजाती है यह सत्य है, परन्तु अर्थज्ञा- नसे विशेष वीर्यवान होता है, इससे अर्थज्ञान व्यवश्य होनाचाहिये । इस विषय में बहु- तसे प्रमाण हैं, जिनका यहां लिखना हम उचित नहीं समझते वेदार्थज्ञान के निमित्त शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिपकी आवश्यकता होती है। पर माध्याम ये सब सुलभ होजाते हैं, इस कारण हमने संस्कृत और भाषा इन दो प्रकारों से रुद्राष्टा- घ्यायीका भाग्य व्यारंभ किया है | 6 77 उपनिषद्, स्मृति, पुराण जादिमें रुद्रजापका विशेष माहात्म्य वर्णन किया है मोक्षकी प्राप्ति, पापनाश, आरोग्य, आयुष्य की प्राप्ति, रुद्रजाप से होती है। जापाल उपनिषद् में लिखा है- [अथ हैनं ब्रह्मचारिण ऊचुः किंजप्येवामृतमश्नुत "ते दीति होवाच याज्ञवल्क्यः शतरुद्रिपेण इति ] अर्थ- ब्रह्मचारियोंने याज्ञव पषिसे प्रश्न किया कि क्या जपनेसे मोक्षको प्राप्ति होतीहै। याज्ञवल्क्यने उत्तर " शतरुद्रियके जपसे । य उपनिषद्में लिखा है- ( यः शतरुद्रियमधीते सोऽनितो भवति स्वर्णस्तेया- तिरापास्तो भवति ब्रह्महत्यातः पूतो भवति कृत्यांकृत्यापूरतो