पृष्ठम्:रुद्राष्टाध्यायी (IA in.ernet.dli.2015.345690).pdf/४

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भूमिका । सम्पूर्ण जगत् में वेदको महिमा कौन नहीं जानता, वेद हो सम्पूर्ण ज्ञानको भंडार है, सर्वज्ञ परमात्माका स्वरूपही वेद है, उपनिषद्, स्मृति, पुराण, मीमांसासूत्रादि में वेदकी महाप्रशंसा पाईजाती है, पाराशरस्मृतिमें लिखा है- "वेदो नारायणः साक्षात्स्वय- म्भूरिति शुश्रुभ " वेद साक्षात् नारायण स्वयम्भू ही है, ब्राह्मणभागम भी वेद परमात्माका निःश्वसित कहा है - "अरे मैत्रेयि व्यस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्य- हग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदः" इति शतपथ | जब कि वेद, नारायणरूप नारायणप्रेरित अपौरुषेय और अनादि है और मनन्तकल्पोंके पहले भी विद्यमान था इसमें अनेक प्रमाण हैं तव यह सम्पूर्ण धार्मिक पुरुषोंकी श्रद्धा की सामग्री है इसमें शंका ही क्या है । वेद व्यपेन धर्मका मूलग्रन्थ है, प्रवृत्तिलक्षण निवृत्तिलक्षण धर्म वेदमें विद्यमान हैं प्रवृत्तिलक्षणवाला धर्म, जिन पुरुषोंको वैशग्य नहीं है उनको क्रमकमसे निष्काम- कर्मोंका वोध कराकर उनसे मनशुद्धि करके निवृत्तिकी ओर लेजाता है, और निवृत्तिलक्षणवाला धर्म ज्ञान वैराग्यरूप होकर साक्षात् मोक्षका साधनरूप होता है, निवृत्तिलक्षणवाले धर्ममें भी ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यस्त इन आश्रमकी व्यवस्था है। ब्रह्मचर्य आश्रम में वेदविद्या के ज्ञानकी प्राप्ति, सन्ध्या, अग्निहोत्र, देवपूजा आदि वैदिककमको करतेहुए आचार्यको सेवा करना मुख्य कर्तव्य है, इस आश्रमकी सम्पूर्णरीति पालन करनेसे इन्द्रिय और स्वन्तःकरण अपने वश में होते है, पहले व्याश्रम में ही यदि जीवनपर्यंत ब्रह्मवर्यकी इच्छा करे और नैष्ठिक ब्रह्मचारी होकर वेदाभ्यास और योगसाधन को तो भी मोक्षमार्ग में पहुंचता है, इस आश्रम के उपरान्त ही चतुर्थ माश्रम संन्या- स ग्रहण कर संसारसे निवृत्त होजाय, यदि इन्द्रियसंयम नहीं हुआ तो शक्तिके, अनुसार आचार्यको दक्षिणा देकर प्रसन्नतापूर्वक पिताके घर व्याकर विवाह करके गृहस्थ आश्रम में वेदमें कई धर्मोका अनुष्ठान करता रहे। गृहस्थाश्रम में पडकर जिससे मन विषयलोलुप होकर अधोगतिको प्राप्त न हो, और अपनी वृत्तियों को स्वच्छ रख सके इसके निमित्त रुद्रका अनुष्ठान करना मुख्य और उत्कृष्ट साधव है यह रुद्रानुष्ठान ही प्रवृत्तिमार्ग से निवृत्तिमार्गको, समर्थ है। करा जिस प्रकार दूधर्मेसे मक्खन निकाल लिया जाताहै इसी प्रकार दि कल्याण के निमित्त यह रुद्राटाध्यायी वेदेका साररूप महात्मामने ★ > व जप