पृष्ठम्:रुद्राष्टाध्यायी (IA in.ernet.dli.2015.345690).pdf/७

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(४) भूमिका । इससे भी अधिक फल होता है । अर्थात् रुद्रीजपका फल इससे विशेष है। और जो मम त्वको छोड़कर सदा रुद्रदेवका जप करता है वह उसी देहसे निश्चय द्र होजाता है । 'चमकं नमकं चैव पौरुपसूक्तं तथैव च ॥ नित्यं त्रयं प्रयुञ्जानो ब्रह्मलोके महीयते ॥ १ ॥ चमकं नमकं होतृम्पुरुषसूक्तं जपेत्सदा ॥ प्रविशेक्स महादेवें गृहं गृहपतिर्यथा ॥ २ ॥ भस्मदिग्धशरीरस्तु भस्मशायी जितेन्द्रियः || सततं रुद्रजाप्योऽसौ परां मुक्तिमवाप्स्यावे ॥ ३ ॥ रोगवान्पापवांश्चैव रुद्रं जप्त्वा जितेन्द्रियः ॥ रोगापापाइिनिर्मुक्तो हातुल सुखमश्नुते ॥ ४ ॥ अर्थ- चमकानमक अध्यय तथा पुरुपसूक्त तोन वार जपनेसे ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठा पाता है ॥ १ ॥ जो चमक नमक तथा दुरुपसूक्तका सदा जप करते हैं, वह महादेवमं ऐसे प्रवेश कर जाते हैं जैसे गृहपति अपने घरमें प्रवेश करजाते हैं ॥ २ ॥ शरीर में भस्म लगानेसे, भस्म में शयन करनेसे जितेन्द्रिय होकर निरन्तर रुद्राध्यायका पाठ कर नेसे मनुष्य मुक्त होजाता है || ३ || और जो रोगी तथा पापी भी जितेन्द्रिय होकर रुद्राध्यायका पाठ करे तो रोग और पापसे निवृत्त होकर महासुखको प्राप्त होता है ॥ ४॥ इच शंख:- ( रहासे कृतानां महापातकानामपि शतरुद्रियं प्रायश्चित्तमिति ।) अर्थ - शंखऋषि कहते हैं गुप्तमहापातकोंकाभी प्रायश्चित्त शतरुद्रियका जप है। शतरुद्रिय इसका नाम इस कारण है कि रुद्रदेवता १०० संख्यावाले हैं यह रुद्रो पनिषद है इसमें शिवात्मकका निरूपण है। ब्रह्मके तीन रूप है एक तो कार्यरूप, सबका उपादानकारण सर्वात्मक, दूसरा सृष्टिस्थितिसंहारनिमित्तक पुरुषनामवाला, तीसरा विद्या से परे निर्गुण निरञ्जन सत्य ज्ञान आनन्दके लक्षणवाला, यह रुद्रके मुख्य स्वरूप है। इस ग्रंथ में ब्रह्मके सगुण निर्गुण दोनों प्रकारके रूपोंका वर्णन है, परमात्माकी उपासना, मक्तिमहिमा, शान्ति, पुत्रपौत्रादिकी वृद्धि, नोरोगता, यज्ञिय पदार्थ प्यादि, कितनाही वस्तुषका वर्णन है इसके पाठसे पाठकोको यह भली प्रकार से विदित होजायगा, कि यह मंत्रविभागरूप ग्रन्थ अल्पकालका नहीं है । जब कि उपनिषदों में स्मृति पुराणों में इसके पाठका माहात्म्य वर्णन किया है तव प्राचीन समयमें ही यह कार्यके योग्य संग्रह हो चुकाथा इसमें कोई सन्देह नहीं है।