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(४८) रुद्राष्टाध्यायी - [ चतुर्यो- विश्वानि धनानि ( भक्षत ) मजत ( वसूनि ) धनानि पुत्रपौत्रपौत्रादौ ( जनमाने ). जनिष्यमाणे मविष्यत्काले ( योजसा ) वलेन ज्ञानसमुच्चयकारितया ( प्रतिभागम् ) ( न ) नकार उपमार्थीयः प्रतिपुरुपं भागमिव ( दीधिमः ) स्थापयाम: 1 इन्द्रः यानि वसूनि वलेन जनिष्यमाणानि करोति पित्र्यम्भागमिव तानि धनानि प्रतिधारयेमेत्यर्थः । [ यजु० ३३ | ४१] ॥ १५ ॥ भाषार्थ- सूर्यको आश्रय करती हुई किरण ही इन्द्र के संपूर्ण धन अर्थात् सृष्टि धान्यनिष्णा- दूक सम्पत्तिको सेवन करती मक्षण करती है, अर्थात विभागकरके प्राणियों को देती है। जा शय यह कि, सूर्यशीरि इन्द्रकी दी हुई दृष्टिको भूमिमें विभाग करती है। और हम उन धन- को पत्रादिके उत्पन्न होने में अपने भागके समान तेजके सहित धारण वा स्थापन करते है ॥१५॥ सरलार्थ- हम सूर्यको आश्रय करके जिससे विश्वाधिपति परमपिताके विषयभोग में समर्थ होते हैं, उनके उत्कृष्ट वा उत्सम्यमान सपूर्णसंपत्ति में भी मनपूर्वक अपने प्रातभा- गर्ने अधिकार किये है, अर्थात्-सूर्य की सहायता से ही सय कार्यकी प्रवृत्ति होती है। आशय यह कि भूमिअधिकारीके भाग्य के अनुसार न्यूनाधिक वर्णन करते है ॥ १५ ॥ मन्त्रः | अधादेवाऽउदितासूष॑स्यु निरव्हस पि- पतानिर॑व॒धात् ॥ तन्नो॑मित्रावरु॑णोमाम हन्तामदिति सिन्धुं पृथि॒वीऽऽतद्यौ ॥ १६ ॥ ॐ अद्येत्यस्य कुत्स ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । देवा देवता दघ्नादि- त्यग्रहश्रयणे विनियोगः ॥ १६ ॥ भाष्यम् - (देवा: ) हे द्योतमानाः सूर्य्यमयः (पद्या) काले (सूर्य) आदित्यस्य ( उदिता) उदयकालीना: उदये सति इतस्ततः प्रसरंतो यूयमस्माद ( अहसः ) पापात् (निष्पितः ) निर्मुञ्चत ( व्यवद्यात्) दुर्यशसोऽपि निर्मुञ्चल । यदिदमस्माभिरुत्तम् (नः) अस्मदीयम् (तत् ) ( मित्रः ) बहरभिमानी देवः ( वरुण: ) अनिष्टानां निषारयिता राज्यभिमानी ( अदितिः ) अखण्डनीया देवमाता ( सिन्धुः ) इयन्दनशी लोदकाभिमानी देवता ( पृथिवी ) भृयेकस्याधिष्ठात्री ( द्यौः ) चलोकाभिमानी ( उत ) समुच्चये ( मा ) माम् (मइन्ताम् ) पूजयन्तु मनुमन्यता- मिति [ यजु० ३३ | ४२ ] ॥ १६ ॥ माषार्थ-हे राश्मयोंमें स्थित देवताओ | भाज मब सूर्यका उदय हमको पापसे तथा दुर्थ- शसे पृथक् करै, मित्र, वरुणदेवता, देवमाता, सिन्धुनदी, पृथिवी और स्वर्ग इस हमारे वय- नको अनुमोदन करें ॥ १६ ॥ X