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( ४६ ) रुद्राष्टाध्यायी - [ चतुर्थी- रूपम् (अनन्तस्) कालतो देशतस्तथा परिच्छेयम् ( रुशत ) शुलं दीप्यमानं जग- मरणाद्ययुक्तं विज्ञानघनानन्दमयमित्यर्थः। (व्यम्पत्) (कृष्ण) देवलक्षणं रूपम् ( हरितः ) दिश इंद्रियवृत्तयो वा ( संभरन्ति ) धारयति । इंद्रियग्रा शुद्ध चैतन्यमद्वैतामति द्वे रूपे सूर्यस्य सगुणं निर्गुणं ब्रह्म सर्य एवेत्यर्थः । [बजु० ३३|३८]॥१२॥ भाषार्य-सूर्य झुलोककी गोदी में मित्र और वरणका वह रूप करता है जिससे मनुष्योंको देखता है अर्थात् मित्ररूपले पुण्यात्माओंपर अनुग्रह करता, वरुणरूपसे पापियोंको निग्रह करता है इस सूर्यका एक रूप देशकालले अपरिच्छेद्य शुद्ध डीप्यमान विज्ञानघनानन्द ब्रह्म दी है। एक कृष्णवर्ण हैतलक्षणवाला रूप है उसको दिशामा इन्द्रियवृत्ति धारण करतो है । अर्थात् इन्द्रियग्राह्य द्वैतरूप है | एक शुद्ध चैतन्य है इस कारण ब्रह्मके सगुण निर्गुण दो रूप कहे है ॥ १२ ॥ विशेष - अद्वैतरूप मित्र अर्थात् - उत्तरायण दिन है, इसमें पुण्यात्मा गमन करते हैं. कृष्ण दक्षिणायन रात्रि है, इसमें पापियोंका वरुणरूप से निग्रह करता है ॥ १२ ॥ बण्ण्सुहाँ २ ||ऽअसिसूर्च्चबडादित्यमुहा २ ॥ऽ अति ॥ महस्तेषुती महिमापनस्तेहादेक भहाँ २ ॥ऽ अलि ॥ १३ ॥ ॐ बण्महानित्यस्य जमदग्निर्ऋषिः । बृहती छन्दः । सूर्यो देवता वि० पू० ॥ १३ ॥ भाज्यम् - (सूर्य) हे सूर्यं त्वं ( बद् ) सत्यम् (महान्) तेजसाधिक: ( असि ) महदसि ब्रह्मेत्यर्थः । ( आदित्य ) हे आदित्य ( ब ) सत्यम् ( महान् असि ) व- नाप्यधिकोऽसि । किञ्च -( महः ) महत : ( सतः) ( ते ) तब ( महिमा ) ( महाभाग्यम् ( पनस्यते ) सर्वैः प्राणिभिः स्तूपते पूज्यते वा. अतः (देव) हे देव दानक्रीडादियुक्त ( अद्धा ) तत्त्वतः ( महान् असि ) वीर्येणाऽप्यधिकोऽसि अभ्यासे भूयांसमर्थमन्यत यथा दर्शनीयोऽर्थनीयोन पुनरुक्तिदोषः । [ यजु० ३३ | ३९ ]॥ १३ ॥ भाषार्थ- हे जगत्को अपने अपने कार्य में प्रेरण करनेवाले सूर्यरूप परमात्मन् ! सत्य ही आप सबसे अधिक हो, हे आदित्य | सबके ग्रहण करनेवाले सत्य ही आप बडे हो, बडे होने से आपकी महिमा लोकोंसे स्तुति की जाती है, इप्यिमान परमात्मन सत्य ही तुम सबसे श्रेष्ठ दो आदरके निमित्त पुनरुक्ति है ॥ १३ ॥ 1