पृष्ठम्:रुद्राष्टाध्यायी (IA in.ernet.dli.2015.345690).pdf/४८

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ऽध्यायः ४ ] भाष्यसहिता । भाषार्थ-विशेषदीप्तिमान सूर्य देवता यजमान में अखण्ड आयुको स्थापन करतेहुए बड़े स्वादुरससे युक्त सोमरूप हविको पान करो, जो सूर्य्य वायुसे प्रेरित आत्माद्वारा प्रजाकी रक्षा करता वा पाळता है पृष्ट करता है वह अनेकप्रकारसे विराजमान होता है । आशष्द यह कि जो अधिक कान्तिमान सूर्य परमात्माके नियमसे वायुवेगसे निरन्तर भ्रमण् करते जावर्गकी रक्षा करते है पोषण करते हैं और चन्द्रनक्षत्रादिकी ज्योतिरूपसे अनेक- रूपसे विराजमान हैं वह आज इस अतिमधुर अधिक सोमरसका पान कर और यज- मानकी आयुकी वृद्धि करे ॥ १ ॥ } 15 FD उद॒स्मञ्जुस वे॑षु सम्बुवहन्तिके॒तव॑ ॥ वृ शेविश्वा॑य॒ सूर्य॑म् ॥ २ ॥ ॐ सदस्य मित्यस्य प्रकृण्व ऋषिः | सुरिगा गायत्री छन्दः सूर्यो देवता । आज्येन शालाद्वाऽसौ हवने विनियोगः ॥ ३ ॥ भाष्यम् - ( केतवः ) सूर्यक्रमयः सूर्यावा वा ( जातवेदसम्) अशिजोमयं या-- जातं वेदः कर्मफलं यस्मात् ( त्यम् ) प्रसिद्धं तम् ( सूर्य देवम् ) द्योतमानं सूर्यम् ( विश्वाय) विश्वस्य (दृशे ) दर्शनाय ( उहन्ति ) ऊर्ध्व वहन्ति ॥ २ ॥ मापार्थ- मोति इस जातवेदस सर्व देवताको सव ससारकी दर्शनक्रिया सम्पादन करनेके निमित्त ऊर्ध्वभाग में निरन्तर वहन करती है । अथवा उद्धको प्राप्त हुए अग्निकी समान समस्त प्राणियोंका कार्य करनेवाले रातारके सब पदार्थों के दर्शनके निमित्त जिसने सूर्यको प्रकाशित किया है उस परमात्माकी विद्वान् पुरुप उपासना करते है ॥ २ ॥ मन्त्रः । येनपावकुचक्षंसा भरण्यन्तञ्जनाँ २ ॥ऽभ- नु || त्वँव॑रुणुपश्च॑स्ति || ३ || ॐ येनेत्यस्य प्रस्कण्व ऋषिः | गायत्री छन्दः । सूर्यो देवता वि० पू० ॥ ३ ॥ माध्यम् - ( पावक ) हे शोधक (वरुण ) व्यनिष्टनिवारफ सूर्य (त्वम्) त्व ( येन ) येन (चक्षसा) दर्शनेन (जनान् ) जातानू माणिन: ( मुरण्यन्तम् ) धार- यन्तं पोषयन्तं वेमं लोकं येन चक्षता प्रकाशन (अनुपश्यास ) अनुक्रमेण प्रकाशेयसि ब्रेन ज्ञानेन व्यस्मानपि भुरण्यतः पश्येत्यर्थः ॥ [ यजु० ३३ | ३२ ] ॥ ३ ॥