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sध्यायः ३. ] भाज्यसहिता | (३७) मापार्थ-- है मारुतो 1 वा हे सेनानायकगण ! जो यह शत्रुओंकी सेना बलते स्पर्धा कर तीहुई हमारे सन्मुख भागमन करती है, उस सेनाको कर्मरहित अंधकार से इस प्रकार आच्छादित करो, कि जिस प्रकार यह शत्रु सेना के लोग परस्पर नहीं जानते हुए परस्पर अ चलाकर नट हो ॥ १५ ॥ याणाहस॒म्पत॑न्तिकुमारावि॑िशि॒खाऽइ॑व ।। तन्नुऽइन्दोबृह॒स्पति॒रदि॑ति॒हशम्मैयच्छतुति- श्वाहाशर्मयच्छतु ॥ १६ ॥ ॐ यत्रेत्यस्य अप्रतिस्थ ऋषिः पंक्तिश्छन्दः । ब्रह्मणस्पतिरदितिष्ठ देवते । प्रार्थने चिनि० ॥ १६ ॥ माप्यम् ( यत्र ) संग्रामे ( विशिखा: ) मुण्डिताः ( कुमारा: ) बालकाः ( इक ( बाणा: ) शगः ( सम्पतन्ति ) सम्यक्तया पतन्ति ( तत् ) तत्र (इन्द्रः ) इन्द्र ( बृहस्पतिः ) ऋदनां पतिः (व्यदितिः ) देवमाता ( शर्म) सुखम् ( नः ) अस्माकम् ( यच्छतु ) ददातु ( विवाह ( ) सवेदा (गर्म ) सुखम् ( यच्छतु ) ददातु पुनरुक्ति- रायगय [ वजु० १७ । ४८ ] ॥ १६ ॥ भापार्य- जिस रणक्षेत्र में वीरगणोंके छोडे हुए बाण इधर उधर गिरते हैं, जिस प्रकार शिवारहित या लहरियोमाटे छोटे दालक चपळताके कारण इधर उधर फिरते हैं, उस युद्धमें बृहस्पति देवता अथवा मंत्रों के पालक विजयके उचित मशकी जाननेवाली देवमाता अथवा सम्पण्डितशक्ति छन्द्र हमको कल्याण प्रदान करें, वह सम्पूर्ण शत्रुओंको मारनेवाला कल्याण प्रदान करें ॥ १६ ॥ मन्त्रः । मम्मणिवणाच्छादयामिलोम॑स्त्वारा- जामृती॒नानु॑वस्ताम् ॥ उरोर्वरीयोवरु॑णस्क्र गोतुजय॑न्त॒न्त्वानु॑दे॒वाम॑दन्तु ॥ १७ ॥ इति सहितायां करणाप्ये तृती- योऽध्यायः ॥ ३ ॥ -