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(२४) रुद्राष्टाध्यायी - [ द्वितीयो - सूर्य है, वह पुरुष सूर्यमें गमन कर आदित्यरूपको प्राप्त हो जाता है। और यही मुक्तिको मार्ग न्हें सो आगे प्रगट करते हैं ॥ १७ ॥ · मन्त्रः । वेदाहमे॒तम्पुरु॑षम्म॒हान्त॑मादि॒त्यवर्णन्त- म॑सपु॒रस्ता॑त् ॥ तमु॒वाव॑दि॒त्वाति॑मृत्यु मे॑ति॒नान्यपन्था॑विद्युतेय॑नाय ।। १८ ।। ॐ वेदाहमित्यस्य नारायण ऋषिः | निच्यृदापत्रिष्टुप छं० पुरुषों दे० | वि० पू० ॥ १८ ॥ भाष्यम् - (व्यहम् ) ( एतम् ) ( महान्तम् ) सर्वोत्कृष्टम् (आदित्यवणम्) सूर्य- सदृशम् उपमान्तराभावात् स्वोपमम् ( तमसः ) अंधकारस्य ( परस्तात् ) दूरतरम् तमोहतमित्यर्थः । तमःशब्देनाविद्याच्यते ( पुरुषम् ) सूर्यमण्डलस्थं (वेद) जानामि ( तमू ) व्यादित्यम् ( एव ) ( विदित्वा ) ज्ञात्वा ( मृत्युम) मरणम् ( अत्येति ) अतिक्रामति परं ब्रह्म गच्छति ( अयनाय ) आश्रयाय (अन्य ) द्वितीयः ( पन्था ) मार्ग: ( न विद्यते ) नास्ति । पुनरावृत्तये मोक्षाय अन्यः पन्था न विद्यते तथा चायमेव पुरुषो ध्यानगम्यो जातो मोक्षं ददातीति वाक्यार्थः । यथा व्यादित्यः स्वप्रकाशकः परा- नपि प्रकाशयति तथाऽयमपि स्वप्रकाशब्रह्मरूपी जगदपि प्रकाशयतीत्यर्थः ॥ १८ ॥ म पार्थ- मैं इस सबसे उत्कृष्ट आदित्यरूप और उपमा न होनेसे अपनी ही समान अंघ- कारसे परे अधकाररूपी अविद्यासे दूर पुरुषको जानता हूँ उसही आदित्य को जानकर मृत्युके आक्रमण करता है, अर्थात् परमब्रह्मको प्राप्त होता है, आश्रयके निमित्त दूसरा मार्ग नहीं है, सूर्यमण्डलके अन्त में आत्मरूप पुरुषको ही जानकर मुक्ति होतीहै ॥ १८ ॥ विशेष- उस कारणरूप सबसे उत्कृष्ट जगदीश्वर आदित्यवर्ण विद्याप्रकाशक परमेश्वर के ज्ञानसे ही मनुष्यकी मुक्ति होती है, यही देवयान मार्ग कहाता है, इसके सिवाय मुक्तिका दूसरा मार्ग नही है, इसीसे आत्मा तदाकार होता है उस समय जो ईश्वरकी महिमा है उसको यह जानता है ॥ १८ ॥ मन्त्रः । प्प्र॒जाप॑तिश्चरति॒गर्भेऽअन्तरजा॑यमा- नोबहुधाविजा॑यते ॥ तस्य॒योनि॒म्परि॑