ऽध्यायः २ ] भान्य साहिता | (१९) भापार्थ-जैसे गौमादि, ब्राह्मणादि उससे उत्पन्न हुए, इसी प्रकार उसके मनसे चन्द्रमा प्रगट हुआ है, चक्षुओंसे सूर्य प्रगट हुआई, श्रोत्रसे वायु और प्राण प्रगट हुए और मुखसे अग्नि प्रगट हुई ॥ १२ ॥ विशेष- यह जो परग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्रमा लक्षित होते हैं इनमें वेतनता है वा नहीं इसका विचार इस प्रकार जानना कि इनमें अधिष्ठित होकर विराट्का अश ( शक्ति ) चेतनवस्तु है, जिसको चन्द्र कहते हैं, वह चन्द्र देवताके रहनेका एक प्रधान गोलक इसी प्रकार दृश्य- मान सूर्य, आग्ने मी सूर्य और अग्निदेवता के रहने के प्रधान स्थान है, इसी प्रकार समदेवता- ऑमें जानलेना | इन संपूर्ण देवताओं के प्रधान स्थान एक एक गोला होकर मी इनके संपूर्ण अश अपने अपने कारणस्थानमें अधिष्ठातृदेवता होकर अवस्थान करते हैं जिस प्रकार जलका प्रधानस्थान समुद्र होकर भी उसके किचित २ अझ समजीवों में हैं इसी प्रकार विराट्के मन- से समष्टि चन्द्र हुआ उसके कुछ २ अंश कारणस्थान मनमें स्थित हो अधिष्ठातृ देवतारूपसे स्थान करते हैं अधिष्ठातृदेवता ही अधिष्ठानका चालक होता है। इसी प्रकार सूर्यका भी प्रधानस्थान यह दृश्यमान सूर्यलोक वा सूर्यगोलक होकर भी उसके किचित् अश हमारे चक्षु- अभि आवर अधिष्ठातृदेवतारूप होवन रहते है जिससे हम देखते है । अधेका अधिष्ठातृदेवता विदारूप है, इसी प्रकार अग्निदेवताका प्रधानस्थान अन्तरिक्ष, द्यु और जठर-यह तीन हैं तो भी अपने किंचित अंशसे सपने कारणस्थान ( हमारे मुख में स्थित वाकू-इद्रियमें स्थित होकर अधिष्ठातृदेवता होकर अवस्थान करते हैं इसी प्रकार सपूर्ण देवताओंमें जानना. मत्रब्राह्मण में जहाँ (मृदववीत् आरोऽनुमन् ) ऐसा आता है वा ( तेदेमेप्राणाअहं श्रेयसेविषदमानब्रह्मजग्मुः कौपीतकी: ) चे प्राणादिक अपनी श्रेष्ठतासंपादन करते प्रजापति के समीप जाकर कहनेलगे ऐसे स्थानोंमें यही जानना कि यह जडके संबोधन नहीं किन्तु उनके अधिष्ठातृदेवता हैं, सो प्रारंभ में भी कहचुकह, पिछला आधा (मुखादिद्रश्वानिश्च प्राणाद्वायुरजायत ) ऐसा है मुख से अग्रे और ब्राह्मण दोनोंकी उत्पत्ति है इस कारण दोनों माइति होती है ॥ १२ ॥ मंत्रः । नाफ्यांऽआसीदन्तरिक्षशीणोंद्यौस- म॑वर्त्तत ॥ पुद्भयाम्भूमिर्द्दिशु श्रोत्रात्तथ लोकाँ ऽअकल्प्पयन् ॥ १३ ॥ ॐ नाभ्या इत्यस्य विनियोगः पूर्ववत् ॥ १३ ॥ माध्यम् (नाभ्याः ) प्रजापतेनभिः (अन्तरिक्षम् ) आकाशम् (आसीत् ) उत्प- नम् ( शीर्णः ) शिरसः (योः ) धुलोकः ( समवर्तत) उत्पन्नः (पद्भ्याम् ) पादाय (भूमि: ( पृथिवी ) श्रोत्रात् (कर्णात् ) दिश: (टिश उत्पन्ना: ) तथा ( इत्थम्) लो-