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भाष्यसहिता | (१७) मन्त्रः । यत्पुरु॑षु॑व्यद॑धुस्कति॒धाव्य॑कल्पयन् ॥ मु खुडम॑स्यास॒त्किम्बाहू किमूरू पादांऽउ - ऋयेते ॥ १० ॥ ॐ यत्पुरुषामेत्यस्य नारायण ऋषिः । नि० छं० पुरुषो दे० वि०पू० ॥ १० ॥ भाष्यम् - ( यत् ) यदा ( पुरुपं ) विराडपं (व्यदधुः ) प्रजापतेः प्राणरूरा देवाः संकल्पेनोत्पादितवन्तः ( तदा ) तस्मिन्काले ( कतिधा) कतिमिः प्रकारैः (व्यकल्प- यन् ) विविधं कल्पितवन्तः ( व्यस्य ) पुरुषस्य ( मुखम् ) मुखम् (किम् आसीत किमासीद ( को बाहू ) को बाहू अभूताम् ( किंम् ) ( ऊरू ) की ऊरू (पादौ ) को च पादौ च्येते ) पादावपि किमास्तामित्यर्थः | पुरुषावयवनिरूपणे द्विवचनम् ॥ १० ॥ भाषार्थ - प्रश्नोत्तर रूपसे ब्राह्मणादिकी सृष्टि कहते हैं- प्रजापति के प्राणरूपदेवता तथा साध्य गणादि जिस समय विरारुपको संकल्पद्वारा प्रस्ट करते हुए उस समय कितने प्रकार से छल्पना करतेहुए अर्थात् पूर्ण करते हुए इस पुरुषका मुख क्या हुआ, क्या भुजा, क्या जघा कौन चरण कहे जातेहै ॥ १० ॥ Sप्यायः २ विशेष - पहिले सामान्यप्रश्न और मुखादि विशेषप्रश्न है, अर्थात् - देवगण सृष्टिके निमित्त मानसयाग विस्तार करके जिस समय निज अमोघ संकल्प विराटपुरुषको सृजन करते हुए उस समय यह विराट् कितने प्रकार से पूर्ण हुआ, क्या पदार्थ उसका मुख बाहु ऊरू और चरण हुआ। तात्पर्य यह है कि ऋषियोंने मानसयाग में सूक्ष्मदृष्टि से ब्रह्मरूप प्रजापति के मुख वाहू आदि मंगोका अवलोकन किया और उसमें ब्राह्मणादि जातिका दर्शन किया ॥ १०॥ मन्त्रः । ब्राह्म्सुणोस्युमुखमासीद्वाहरा॑ज॒न्यः कुतः ॥ ऊरूलदस्युर्यदेश्य॑+पुद्धचांशूद्रोऽभजाय- त॥ ११ ॥ ॐ ब्राह्मणोस्यत्यस्य वि० पू० ॥ ११ ॥ २