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(१६) रुद्राष्टाध्यायो- (द्वितीयो- भाष्यम् (तस्मात् ) ( यज्ञात् ) सर्वरूपयज्ञरूपात् ( व्यश्वाः ) अश्वाः (अजाय- न्त ) प्रकटीभूताः (च) (ये के ) ( उभयाइतः ) व्यश्वव्यतिरिक्ता गर्दभादय ऊर्ध्वाधो- मागयोर्दन्तयुक्तास्तेपि व्यजायन्त ( ह ) प्रसिद्धौ ( तस्मात् ) पुरुषात् ( गावः ) गावध ( जज्ञिरे) अजायन्त ( तस्मात् ) सर्वव्यापकात् (मजावयः) मजा - यश्च यज्ञाः छागाः अवयो मेषाश्च (जाताः ) जज्ञिरे । अत्र कण्डिकात्रय चत्किचि द्धविरामकं विध्यर्थवादमन्त्राश्रया वेदाश्च पुरुषोत्तमात्पुरुष मेध यज्ञस्वरूपादेव सर्व जातमिति वाक्यार्थः ॥ ८ ॥ भाषार्थ-उस यज्ञपुरुषधे घोडे उत्पन्न हुए जो कोई घोटोंसे अतिरिक्त गर्दमादि तथा ऊपर नीचे के दांतोंसे युक्त हैं षे उम्पन्न हुए, प्रसिद्ध है कि उस यज्ञपुरुपसे गोएं मनट हुई, उसीसे मेड बकरी उत्पन्न हुई ॥ ८ ॥ विशेष–पूर्वमत्र में सामान्यतासे आरण्य और ग्रामके पशु उत्पन्न होने कहे, इस मंत्र में यज्ञका साधक विशेष पशुओंका निरूपण किया है। ब्राह्मणभागने उनके चि भी लिखे हैं। (स्थूल पृषती माग्निवारुणीमनवाहीमालभेत ) अर्थ - जिसका शरीर हृष्ट पुष्ट गोल बडे बडे चित्रोंसे युक्त हो नेत्र सूर्य और अग्रेि समान रक्तवर्ण हों, उस गोशे यज्ञके घृत, दुग्धके निमित्त ग्रहण करके फिर प्रदान करदे | इत्यादि यहाँ याज्ञेय पशुओंश वर्णन किया है, इससे पहले ६ मंत्रोंसे इसमें भेद है ॥ ८ ॥ मन्त्रः । तंव्य॒ज्ञम्ब॒र्हिषि क्षुपुरु॑षञ्जतम॑य॒तः । तेन॑दे॒वाऽअंयजन्तसा॒ध्याऽऋष॑यश्चुये ॥ ९ ॥ ॐ तं यज्ञमित्यस्य यदि पूर्ववत् ॥ ९ ॥ भाष्यम् ( अग्रतः ) ( जातम् ) सृष्टे: पूर्व जातम्, पुरुपत्नोपत्र ( तमू ) ( यज्ञम् ) यज्ञसाधनभूतम् ( पुरुषम् ) यज्ञपुरुषं पशुत्वभावनया यूपे वर्द्ध ( वहिषि ) मानसे यज्ञे ( मोक्षन) प्रोक्षितवन्तः मानसयागं निष्पाविन्तः (तेन ) पुरुषेण ( साध्या: ) सृष्टिसाधनयोग्याः प्रजापतिप्रभृतयः ( देवाः ) निर्जंगः (च) ( ऋषयः ) मंत्रद्रष्टारः ( व्ययजन्त ) यागं कृतवन्तः । अत्र कारणे कार्योपचारात् यज्ञेन यज्ञसाधनमभिधीयते प्रौक्षन् ग्रहणं सकलसंस्कागेपलक्षणार्थ तथा व पुरुषं पृषदाज्य दिख यज्ञसाधनभूतं प्रोक्षणादिसंस्कारैः संस्कृत्य तेन पृषदाज्यादिरूपेण देवा याग कृतवन्त इति वाक्यार्थः ॥ ९ ॥ भाषार्थ–सृष्टिके पूर्व में प्रकटहुए • अर्थात- पुरुषरूप से प्रादुर्भूत उस यज्ञमाधनभूत पुरुषको मानसयज्ञ में प्रोक्षणादि सरकारोंसे सस्कार करते हुए, उसी पुरुषसे जो साध्य देवगण और ऋषि अर्थात् सृष्टिसाधनयोग्य प्रजापति और उनके अनुकूल मत्रद्रष्टा ऋषि मानसयागको निष्पन्न करतेहुए ॥ ९ ॥