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ऽध्यायः २. ] भाष्यसहिता । (१५) विशेष:- सर्व विश्व ( संसार ) पुरुष जिस यज्ञ में आहुए उम्र मानसयोगको सर्वहुत कहते हैं, सर्व प्रथम वधितादि वस्नु प्रगट हुई, यहाँ दुषिता विभोग्य वस्तुसे वृक्षोंके रस विशेष जानने यह घृत, दधि उपलक्षण है । पर्वतवासी योगीगण इन्हीं वृक्षों के पृषदाज्यस्वरूप अबफलोंको भोजन कर क्षुधा तृष्णा निवृत्त करते हैं, यहाँ वृद्धि घृतसे उत्पन्न होनेवाले जीवों- के खाद्यपदार्थ की सृष्टि जाननी, कोई कहते हैं उस सर्वहुत यज्ञपुरुषद्वारा दुधिमिश्रित घृत सपादित हुआ, उससे ग्रामचारी अरण्यचारी और (च) कहने से नभश्वारी जीव उत्पन्न हुए। इस स्थल में यथार्थ कर्तृत्व ब्रह्मको मानकर ब्रह्मसे भस्मदाविपर्यन्त यथार्थ कर्तृत्व नहीं है ऐसा दिखाया है इसीसे कहा है कि उससे प्रगट हुए ॥ ६ ॥ मन्त्रः । तस्मा॑द्य॒ज्ञात्स॑मु॑हुतऋचुऽसामा॑निजज्ञिरे ॥ छन् ७ सिजज्ञिरे॒तस्म्मा॒ाद्यजस्तस्म्मद जा यत ॥ ७ ॥ ॐ तस्मादित्य नारायण ऋषिः । आर्ण्यनुष्टुप् । पुरुषो देवता । वि०पू० ॥ ७ ॥ माध्यम्-( तस्मात् ) ( सर्वेहुतः ) संयमानात् ( यज्ञात ) यज्ञपुरुषात् (ऋषः ) ऋग्वेशः ( सामान ) सामवेदाः ( जज्ञिरे ) जाताः (तस्मात् ) पुरुषात् छन्दार्थ- लि ) गायत्री प्रभृतीनि ( जज्ञिरे ) जाता: ( तस्मात् ) ब्रह्मणः ( यजुः ) यजुराप ( अजायत ) जात इत्यर्थः ॥ ७ ॥ मापार्थ- उस सर्वहुत यज्ञपुरुप से ऋ, साम, उत्पन्न हुए | उसी से छन्द अथर्वमन्त्र प्रकट हुए, उससे यज्ञात्मक यजुः प्रगट हुआ ॥ ७ ॥ मन्त्रः | तस्मा॒दश्वा॑ अजायन्त॒येकेचभुयाद॑तः ।। जज्ञिरे॒तस्म्मा॒ात्तस्मा॑ज्जाताऽअंजा- गावह वर्यः ॥ ८ ॥ --- ॐ तस्मादित्यस्य नारायण ऋषिः | निच्यृदानुष्टुप छंदः । पुरुषो दे० वि० पू ॥ ८ ॥