पुटमेतत् सुपुष्टितम्
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॥ मालविकाग्निमित्रम् ॥
- विदुषक: | १णं पुछ्छिदोम्हि | पच्चुप्पण्णध्धिणा मए कहिदं |
- देव्वचिन्तएहिं राआ भणिओ | सोवसग्गम् वो णख्खन्तं |
- ता सव्वबन्धणमोख्खो करिअदुत्ति | तम् सुणिअ देवीए
- धारिणीए इरावदीचित्तम् रख्खन्तीए राआ किल मोएदित्ति
- तुमं एव्व मोएहित्ति अहं सम्दिठ्ठोम्हि | तदो जुज्जइत्ति ५
- ताए संपादिओ अथ्थो |
- राजा | विदुषकम् परिष्वज्य | सखे प्रियोहं तव |
- न हि बुद्धिगुणेनैव सुह्रुदामर्थदर्शनम् |
- कार्यसिद्धिपथ: सूक्ष्म: स्नेहेनाप्युपलभ्यते ||६||
- विदूषक: | २तुवरदु भवं | समुद्दघरए ससहिं मालविअं ठावि- ६
- अ भवन्तं पच्चुग्गदोम्हि |
- राजा | अहमेनाम् सम्भावयामि | गच्छाग्रत: |
- विदूषक: | ३एदु भवं | एदं समुइघरअं |
- १. ननु पृष्टोस्मि | प्रत्युत्पन्नबुद्धिना मया कथितम् | दैवचिन्तकै राजा भणित: | सोपसर्गं वो नक्षत्रम् | तन्सर्वबन्धनमोक्ष: क्रियतामति | तच्छ्रुत्वा देव्या धारिण्यै-
- रावतोचितम् रक्षन्त्या राजा किल मोचयतीति त्वमेव मोचयेत्यहं संदिष्टोस्मि |
- ततो युज्यत इति तया संपादितोर्थ: |
- २. त्वरतां भवान् | समुद्रगृहे ससखीम् मालविकां स्थापयित्वा भवन्तं प्रत्युद्गन्तोस्मि |
- ३. एतु भवान् | एतत्समुद्रगृहम् |
1. B प्पच्चुपण्ण०; F पच्चुत्तरपच्चुप्पण्णबु-
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