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पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/८४

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भोजप्रबन्धः

 ततो वेश्यागृहं प्रविश्य भोजः कालिदासं दृष्ट्वा सम्भ्रममाश्लिष्य पादयोः पतति । स राजा पठति च-

'गच्छतस्तिष्टनो वापि जाग्रतः स्वपतोऽपि वा ।
मा भून्मनः कदाचिन्मे त्वया-विरहित कवे ॥१५८ ॥

 कालिदासस्तच्छुत्वा []१व्रीडावनताननास्तिष्टति । राजा च. कालिदासमुखमुन्नमय्याह-

'कालिदास कलावास दासवाञ्चालितो यदिग ।
राजमार्गे व्रजन्नत्र परेषां तत्र का त्रपा ॥ १५ ॥

धन्यां विलासिनी मन्ये कालिदासो यदेतया।
निबद्धः स्वगुणैरेष शकुन्त इव पञ्जरे ॥१६॥

 तत्पश्चात् भोज वेश्या के घर में प्रविष्ट हो कालिदास को देखा और संभ्रमः के साथ के घर में प्रविष्ट हो कालिदास के पैरों में गिरा और कहा- 'चलते अथवा वैठते, जागते अथवा सोते हे कविराज, मेरा मन कभी तुमसे वियुक्त न हो।

 यह सुन कर कालिदास ने लाज से मुंह नीचा कर लिया। राजा ने. कालिदास का मुख ऊँचा करके कहा-

 'हे कला के आवास स्थान कालिदास, यदि दास के समान राज मार्ग में तुमने चला दिया तो इसमें औरों को लज्जा की क्या बात है ?

 मैं विलासनी को धन्य मानता हूँ कि इसने अपने गुणों से कालिदास को पिंजरे में पक्षी के समान निबद्ध कर लिया।'

 राजा नेत्रयोहर्षाश्रु मार्जयति कराभ्यां कालिदासस्य । ततस्तत्प्राप्तिप्रसन्नो राजा ब्राह्मणेभ्यः प्रत्येकं लक्षं ददौ । निजतुरगे च कालिदासमारोप्य सपरिवारो निजगृहं ययौ।

 राजा ने कालिदास के नेत्रों से प्रसन्नता के आँसू पोंछे और फिर उसके मिल जाने से प्रसन्न हो ब्राह्मणों को एक-एक लाख दिये । ओर अपने घोड़े पर कालिदास को बैठा कर परिवार सहित अपने महलों को लौट गया।

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  1. बीडया-लज्जया, अवनतं मुखं यस्य स इति विग्रहः । .