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भोजप्रवन्धः

इसी ( जूते के स्वामी का है और यथा क्रम दासी को वेश्या के घर में घुसती देखकर उस ( वेश्या गृह ) आवास को चारों से घेर लिया। फिर क्षण भर में उन्होंने राजा भोज के कानों तक इस जान कारी का समाचार भेज दिया । तब राजा पुरवासियों और मंत्रियों के साथ पैदल ही विलासवती के घर गया।

 ततस्तच्छुत्वा विलासवतीं प्राह कालिदासः--'प्रिये, मत्कृते किं कष्टं ते पश्य ।' विलासवती-सुकवे,

उपस्थिते विप्लव एव पुंसां समस्तभावः परिमीयतेऽतः ।
अवाति वायौ नहि [१] तूलराशेगिरेश्च कश्चित्प्रतिभाति भेदः ।।१५।।

मित्रस्वजनबन्धूनां बुद्धेर्धेयस्य चात्मनः ।
आपन्निकषपाषाणे जनो जानाति सारताम् ॥ १५६ ॥

अप्रार्थितानि दुःखानि यथैवायान्ति देहिनः ।
सुखानि च तथा मन्ये दैन्यमत्रातिरिच्यते ॥ १५७ ॥

 सुकवे, राज्ञा त्वयि मनाङ्निराकृते वचसापि मया सदेहं दासीवृन्दं प्रदीतवह्नौ पतिष्यति ।' कालिदासः-'प्रिये, नैवं मन्तव्यम् । मां दृष्ट्या विकासीकृतास्यो भोजः पादयोः पतिष्यति' इति ।

 फिर यह सुनकर कालिदास ने विलासवती से कहा-'प्रिये, देखो, मेरे लिए तुम्हें कैसा कष्ट हो रहा है ।' विलासवती ने कहा-'हे सुकवि, विपत्ति के उपस्थित होने पर ही मनुष्यों के सब भावों का मूल्यांकन हो पाता है; जब तक हवा नहीं चलती, रुई के ढेर और पहाड़ में कोई अंतर ही नहीं मालूम होता।

 मनुष्य मित्र, स्वजन, भाई-बंधु, बुद्धि और धीरज का तथा अपना सार आपत्ति रूपी कसौटी पर कसकर जान पाता है।

 जैसे मनुष्य के पास विना प्रार्थना किये ही दुःख आ जाते हैं, वैसे ही सुख भी । सो इस समय दीन भाव का अनुभव अतिरेक प्रतीत होता है।

 हे सुकवि, यदि वचनों से भी राजा के द्वारा आपका थोड़ा सा भी अनादर हुआ तो मैं सशरीर दासियों के साथ जलती आग में गिर जाऊँगी ।' कालिदास ने कहा-'प्रिये, ऐसा मत समझो। मुझे देख कर भोज प्रसन्न वदन हो पैरों पर गिरेगा।'


  1. कार्पाससमूहस्य ।