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पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/८२

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भोजप्रबन्धः

 'घोड़े दौड़ाओ। तत्पश्चात् क्रीडा-उद्यान जाने के समय से संबद्ध नगाड़े का घोष हुआ--'इस समय राजा देव-पूजा में व्यग्न हैं, ऐसा सुनते हैं कि पुनः अभी क्रीडा-उद्यान में जायेंगे, सो एकत्र हो सभी भट अनुगमनार्थ प्रस्तुत हो गये । तब राजा विद्वानों के साथ घोड़े पर चढ़ कर उस प्रदेश में पहुंचा, जहाँ रात्रि को चारण की घटना हुई थी।

 ततो राजा चरतां चौराणां पदज्ञाननिपुणानाहूय प्राह-'अनेन वर्त्मना यः कोऽपि रात्री निर्गतस्तस्य पदान्यद्यापि दृश्यन्ते, तानि पश्यन्तु' इति । ततो राजा प्रतिपण्डितं लक्षं दत्त्वा तान्प्रेषयित्वा च स्वभवनमगात् । ते च पदज्ञा राजाज्ञया सर्वतश्चरन्तोऽपि तमनवेक्ष- मारणा विमूढा इवासन् ।

 तव राजा ने चोरों के आने-जाने से बने पैरों के चिह्नों की पहिचान करने में निपुण व्यक्तियों को बुलाकर कहा-'इस मार्ग से कोई रात में गया है, उसके पैरों के चिह्न आज भी दीख रहे हैं, उन्हें खोजो।' राजा ने प्रत्येक पंडित को लाख-लाख दिया उन्हे भेज कर अपने महल को लौट गया । वे पद- चिह्न ज्ञानी व्यक्ति राजा की आज्ञा से सब ओर घूमघाम कर भी पद-चिह्न वाले व्यक्ति को न ढूंढ पाये और मूर्ख बन वैठे।

 तत्तश्च लम्बमाने सवितरि कामपि दासीमेकं पदत्राणं त्रुटितमादाय चर्मकारवेश्म गच्छन्तीं दृष्ट्वा तुष्टा इवासन् । ततस्तत्पदत्राणं तया चमेकारकरे न्यस्तं वीक्ष्य तैश्च तस्याः करान्मिषेणादाय रेणुपूर्णे पथि मुक्त्वा तदेव पदं तस्येति ज्ञात्वा तां च दासी क्रमेण, वेश्याभवनं विश- न्तीं वीक्ष्य तस्या मन्दिरं परितो वेष्टयामासुः । ततश्च तैः क्षणेन [] भोजश्नवणपथविषयमभिज्ञानवार्ताप्रापिता । ततो राजा सपौरः सामात्यः पद्भयामेव विलासवतीभवनमगात् ।

 फिर वे सूरज-ढले एक दासी को एक फटा जूता लेकर चमार के घर जाती हुई देखकर कुछ प्रसन्न हुए। उस जूते को उसके द्वारा चमार के हाथ में रखा देख उन्होंने वहाने से उसके हाथ से उसे लिया और धूल भरे रास्ते में छोड़ कर और ( इस प्रकार उसकी छाप से ) समझ लिया कि वह पद चिह्न


  1. मोजम्प्रतीत्यर्थः ।