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पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/७५

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भोजप्रबन्धः

 तब से राजा न सोता था, न भोजन करता था और न किसो से बोलता ही था । उन्मन हो वैठ कर केवल दिन रात विलाप करता था-'मुझे कैसी लज्जा, कैसी मेरी उदारता और कहाँ मेरी गंभीरता? हाय, कवि, कवियों के मुकुटमणि, कालिदास, मेरे प्राण-तुल्य, हाय !, मुझ मूर्ख ने तुम्हें क्या न सुनने योग्य सुनाया, अकथनीय कहा ?' इस प्रकार सोया हुआ जैसा, ग्रह गृहीत जैसा, माया से विनष्ट जैसा गिर पड़ता। तब फिर प्रिय रानी के कर-कमलों द्वारा छिड़के गये जल से सुधि पाकर और उसी प्रिया को देखकर अपनी निंदा करता हुआ किसी प्रकार चला रहा था।

 ततो निशानाथहीनेव निशा, दिनकरहीनेव दिनश्रीः, वियोगिनीव योषित् , शक्ररहितेव सुधर्मा, न भाति भोजभूपालसभा रहिता कालि. दासेन । तदाप्रभृति न कस्यचिन्मुखे काव्यम् । न कोऽपि विनोदसुन्दरं वचो वक्ति।

 तब फिर जैसे रात्रि के स्वामी ( चंद्र ) से रहित रात्रि हो, दिन के कर्ता ( सूर्य ) से रहित जैसे दिवसलक्ष्मी हो, जैसे कोई वियोगिनी हो, जैसे इंद्र से रहित देव सभा हो, ऐसे ही कालिदास से रहित राजा भोज की सभा अच्छी न लगने लगी। तब से किसी के मुख में काव्य रहा ही नहीं । काई विनोदपूर्ण सुन्दर वाक्य तक न बोलता था।

 ततो गतेषु केषुचिद्दिनेषु कदाचिद्राकापूर्णेन्दुमण्डलं पश्यन्पुरश्च लीलादेवीमुखेन्दुं वीक्ष्य प्राह-  तुलणं अणु अणुसरइ ग्लौसो मुहचन्दस्स खु एदाए। ' कुत्र च पूर्णेऽपि चन्द्रमसि नेत्रविलासाः, कदा वाचो विलसितम् । प्रातश्वोत्थितः प्रातर्विधीविधाय सभां प्राप्य राजा विद्वद्वरान्प्राह-'अहो कवयः, इयं समस्या पूर्यताम् ।' ततः पठति-  [] 'तुलणं अणु अणुसरइ ग्लौसो मुहचन्दस्स खु एदाए।' पुनराह -'इयं चेत्समस्या न पूर्यते भवद्भिर्मद्देशे न स्थातव्यम्' इति । ततो भीतास्ते कवयः स्वानि गृहाणि जग्मुः।

 तदनतर कुछ दिन बीतने पर कभी पूर्णिमा के पूर्ण चद्रमंडल और संमुख लीलादेवी के मुखचंद्र को देखकर राजाने ( एक पद) कहा-


  1. तुलनामन्वनुसरति, ग्लौसो मुख चन्द्रस्य खल्वेतत्याः ।