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पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/७४

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भोजप्रवन्धः

 तदनन्तर हँसती हुई रानी आश्चर्य में पड़कर बोली-महाराज, निःसन्देह मैं धन्य हूँ जिसके आप ऐसे पति हैं । आपके द्वारा भोगी जाने वाली मेरा मन और कहीं कैसे जायेगा, क्योंकि आप तो प्रियोपभोग काल में सभी कामिनियों द्वारा स्मरण किये जाने योग्य हैं ? हाय महाराज, यदि आप मुझ सती को असती ठहरा कर चले जायेंगे तो फिर मैं मर ही जाऊँगी।' तब राजा ने भी कहा-'प्रिये, तुम सच कहती हो।' तत्पश्चात् राजा ने सेवकों से सर्प मँगवाया, लोहे का गोला गर्म करवाया और धनुष को चढ़ाकर रक्खा :

 ततो देवी स्नाता निजपातिव्रत्यानलेन देदीप्यमाना सुकुमारगात्री सूर्यमवलोक्य प्राह-'जगचक्षुस्त्वं सर्व वेत्सि ।

जाग्रति स्वप्नकाले च सुषुप्तौ यदि मे पतिः। .
भोज एव परं नान्यो मच्चित्ते भावितोऽस्ति न ॥ १४६ ।।

 इत्युक्त्वा ततो दिव्यत्रयं चक्रे । ततः शुद्धायामन्तःपुरे लीलावत्यां लज्जानतशिरा नृपतिः पश्चात्तापात्पुरः 'देवि, क्षमस्व पापिष्ठं माम् । किं वदामि' इति कथयामास ।

 तदनंतर स्नान करके अपने पतिव्रत रूपी अग्नि से दीप्त होती सुकुमार शरीरवाली रानी सूर्य को देखकर वोली-,जगत् के नेत्र आप सब जानते हो ।

 जागते. स्वप्न देखते अथवा सोते समय यदि भोज ही मेरे पति हैं, तो किसी अन्य का विचार भी मैंने किया है या नहीं-यह स्पष्ट करो।'

 ऐसा कहके उसने तीनों प्रकार की परिक्षाएँ दीं। तब अंतःपुर में देवी लीलावती को शुद्ध प्रमाणित पा लाज से सिर झुकाये, पछताता हुआ राजा वोला- 'देवि, मुझ पापी को क्षमा करो । क्या कहूँ ?'

 राजा च तदाप्रभूति न निद्राति, न च भुक्त, न केनचिद्वक्ति । केवलमुद्विग्नमनाः स्थित्वा दिवानिशं प्रविलपति - 'किं नाम मम लज्जा, किं नाम दाक्षिण्यम्, क्व गाम्भीर्यम् । हा हा कवे, कविकोटिमुकुटमणे, कालिदास, हा हा मम प्राणसम हा । मूर्खेण किमश्राव्यं श्रावितोऽसि । अवाच्यमुक्तोऽसि' इति प्रसुप्त इव ग्रहग्रस्त इव, मायाविध्वस्त इव, पपात । ततः प्रियाकरकमलसिक्तजलसञ्जातसंज्ञः कथमपि तामेव प्रियां वीक्ष्य स्वात्मनिन्दापरः परमतिष्ठत् ।