सामग्री पर जाएँ

पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/७३

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति
६६
भोजप्रबन्धः

  तदनन्तर कालिदास के घर से चले जाने पर राजा से लीला देवी ने कहा- 'महाराज, कालिदास के साथ आपकी बहुत घनी मित्रता है । सो इस समय किस लिए उसका देश में रहना भी आपने अनुचित रूप से निषिद्ध कर दिया

 जैसे गन्ने की फुलची ( ऊपरी भाग ) से क्रमशः नीचे के पोरों में रस ( मिठास ) बढ़ता जाता है, वैसे ही सज्जनों की मित्रता क्षण-क्षण बढ़ती जाती है और सज्जनों के विपरीत, जो दुर्जन हैं, उनकी इससे विपरीत घटती है।

  शोक रूपी शत्रु से त्राण दिलाने वाले, प्रेम और विश्वास के पात्र दो अक्षर के रत्न 'मित्र' की सृष्टि किसने की है ?'

  राजाप्येतल्लीलादेवीवचनमाकर्ण्य प्राह-'देवि, केनापि ममेत्यभिधायि यत्कालिदासो दासीवेषेणान्तःपुरमासाद्य देव्या सह रमते' इति मया चैतद्व्यापारजिज्ञासया कपटज्वरेणायं भवती च वीक्षितौ । तत्समीपवर्तिन्यामपि त्वय्युत्तरार्धमित्थं प्राह । तच्चाकर्ण्यं त्वयापि कृतं हासः। ततश्च सर्वमेतद्दृष्ट्वा ब्राह्मणहननभीरुणा मया देशानिःसारितः । त्वां च न दाक्षिण्येन हन्मि' इति ।

  लीलादेवी के ऐसे वचन सुनकर राजा ने भी कहा–'रानी किसी ने मुझे यह कहा कि कालिदास दासी वेष में रनिवास में पहुँचकर रानी के साथ रमण करता है। मैंने इस बात को जानने की आकांक्षा से ज्वर का बहाना करके उसे और आपको देखा । तब तुम्हारे निकट में उपस्थित रहने पर भी उसने ऐसा श्लोक का उत्तरार्द्ध पढ़ा । और उसे सुनकर तुम भी मुस्कुरा दीं। तब यह सब देखकर ब्राह्मण वध के डर से मैंने उसे देश से निकाल दिया, और तुम्हें मैं उदारता के कारण नहीं मार रहा हूँ।'

 ततो हासपरा देवी चमत्कृता प्राह–'निःशङ्क देव, अहमेव धन्या यस्यास्त्वं पतिरीदृशः । यत्त्वया भुक्तशीलाया मम मनः कथमन्यत्र गच्छति । यतः सर्वकामिनीभिरपि कान्तोपभोगे स्मर्तव्योऽसि । अहा देव, त्वं यदि मां सतीमसती वा कृत्वा गमिप्यसि, तर्ह्यहं सर्वथा मरिष्ये इति । ततो राजापि 'प्रिये, सत्यं वदसि' इति । ततः स नृपतिः पुरुषैरहिमानयामास । तप्तं लोहगोलकं कारयामास । धनुश्च सज्जं चक्रे ।