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भोजप्रबन्धः

 हे तुले, प्रमाण का पद (छोटा-बड़ा बताने का काम, मूल्यांकन ) को । प्राप्त करके यह तेरी कैसी उद्धतता है कि तू भारी (गौरवास्पद ) को नीचे ले जाती है ( निम्न घोषित करती है ) और हलके ( सारहीन ) को ऊपर (संमाननीय ) उठा देती है।

पुनराह-- 'यस्यास्ति सर्वत्र गतिः स कस्मात्स्वदेशरागेण हि याति खेदम् । तातस्य कूपोऽयमिति ब्रूवाणाः क्षारं जलं कापुरुषाः पिबन्ति' ॥१३५॥

 फिर कहा--जिसकी गति सर्वत्र समान है ( जो सब स्थानों में मान पाने योग्य है ), वह स्वदेश-प्रेम के कारण क्यों कष्ट उठाये ? 'यह पिता का कुआ है--' ऐसा विचार कर कायर जन ही खारा जल पिया करते हैं।

ततो राज्ञा कृतामवज्ञां मनसि विदित्वा कालिदासो दुर्मना निज- वेश्म ययौ।

अवज्ञास्फुटितं प्रेम समीकर्तुं क ईश्वरः ।
सन्धिं न याति स्फुटितं लाक्षालेपेन मौक्तिकम् ॥ १३६ ।।

 तदनंतर राजा द्वारा की गयी अवज्ञा ( अवहेलना ) को मन ही मन समझ दुःखी कालिदास अपने धर चला गया ।

 अवहेलना से भग्न प्रेम को जोड़ने में कौन समर्थ होता हैं ?. टूटा मोती लाख लगाने से नहीं जुड़ता।

 ततो राजापि खिन्नः स्थितः । ततो लीलावतो खिन्नं दृष्ट्वा राजानं विषादकारणमपृच्छत् । राजा च रहसि सर्व तस्यै प्राह । स च राजमुखेन कालिदासावज्ञां ज्ञात्वा पुनः प्राह--'देव प्राणनाथ, सर्वज्ञोऽसि ।

स्नेहो हि वरमवटितो न वरं सञ्जातविघटितस्नेहः ।
हृतनयनो हि विषादीन विषादी भवति[१] जात्यन्धः।।१३७।।

 तब राजा भी खिन्न रहने लगा । तदनन्तर राजा को खिन्न देखकर रानी लीलावती ने विषाद का कारण पूछा । एकांत में राजा ने उसे सब कुछ बताया । राजा के मुख से कालिदास की अवहेलना हुई जानकर उसने फिर कहा--- 'देव. प्राणनाथ, आप सर्वज्ञ हैं।



  1. जन्मान्ध इति यावत् ।