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भोजप्रबन्धः

. कालिदास--कवि की वाणी:( कविता ) न देनेवाले दाता के मन को छू भी नहीं पाती है । तरुणी के द्वारा किये गए विलास बहुत बूढ़े पुरुष को दुःख ही देते हैं।

राजा प्रतिपण्डितं लक्षं दत्तवान् ।

 राजा ने प्रत्येक पंडित को लाख-लाख मुद्राएँ दी।


१०--कालिदासस्य कलङ्कनिवारणम्,

 ततः कदाचिद्राजा समस्तादपि कविमण्डलाधिकं कालिदासमवलोक्यायान्तं परं वेश्यालोलत्वेन चेतसि खेदलवं चक्र । तदा सीता विद्वद्वृन्दवन्दिता तदभिप्रायं ज्ञात्वा प्राह---'देव'

दोषमपि गुणवति जने दृष्ट्वा गुणरागिणो न खिद्यन्ते ।
प्रीत्यैव शशिनि पतितं पश्यति लोकः कलङ्कमपि ।। १३३ ।।

तुष्टो राजा सीताय लक्षं ददौ ।

 तदनंतर कभी राजा ने संपूर्ण कविमंडली से भी अधिक महत्त्व शाली कालिदास को आता देखकर परन्तु मन में उनकी वेश्यालोलुपता विचाकर थोड़ी-सी खिन्नता का अनुभव किया । तब विद्वज्जनद्वारा वंदिता सीता ने राजा का अभिप्राय समझ कर कहा-

 गुणानुरागी मनुष्य गुणवान व्यक्ति में दोष भी देख कर खिन्न नहीं होते. संसार चंद्रमा में लगे कलंक को उसके प्रति प्रीति के कारण ही देख लेता है।

 तब संतुष्ट हो राजा ने सीता को लाख लिये ।

 तथापि कालिदासं यथापूर्वं न मानयति यदा, तदा स च कालि- दासो राज्ञोऽभिप्रायं विदित्वा तुलामिषेण प्राह-

'प्राप्य प्रमाणपदवीं को नामास्ते तुलेऽवलेपस्ते ।
नयसि गरिष्ठमधस्तात्तदित्तरमुच्चैस्तरांकुरुषे' ।। १३४ ।।

 तो भी राजा पहिले के समान कालिदास का संमान नहीं करता यह वात समझ कर कालिदास ने तुला (तराजू ) के व्याज से कहा-