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भोजप्रवन्धः

  प्रेम यदि उत्पन्न ही न हो तो अच्छा है परन्तु उत्पन्न होकर टूटा स्नेह अच्छा नहीं। जिसकी आँखें न रहे, दुःखी वही होता है, जो जन्मान्ध है, वह नहीं।

परन्तु कालिदासः कोऽपि भारत्याः पुरुषावतारः ! तत्सर्वभावेन सम्मानयैनं विद्वद्धयः । पश्य-

दोषाकरोऽपि कुटिलोऽपि कलङ्कितोऽपि
मित्रावसानसमये विहितोदयोऽपि ।
चन्द्रस्तथापि हरव [१]ल्लभतामुपैति
नैवाश्रितेषु गुणदोषविचारणा स्यात् ।। १३८ ।।

 परंतु कालिदास तो वाग्देवता का नर रूप में एक अवतार है। तो उसका सर्व विद्वानों से अधिक सम्मान कीजिए। देखिए-- दोषा रात्रि का करने वाला इस प्रकार ) दोषो का भांडार होने पर भी, वक्र होने पर भी, कलंक युक्त होने पर भी और मित्र ( सूर्य ) के अस्त होने के समय स्वयम् उदित होने वाला होकर भी ( मित्र की अवनति से स्वम् उन्नति कर लेने के दोष से युक्त होकर भी ) चंद्रमा ने शिव के प्रेम को प्राप्त कर लिया है। ( इससे सिद्ध है ) आश्रित जनों के गुण-दोष का विचार नहीं किया जाता ।

 राजा-प्रिये, सर्वमेतत्सत्यमेव' इत्यङ्गीकृत्य 'श्वः कालिदासं प्रातरेव सन्तोषयिष्यामि' इत्यवोचत् ।

 अन्येद्य, राजा दन्तधावनादि विधि विधाय निवर्तितनित्यकृत्यः समां प्राप । पण्डिताः कवयश्च गायका अन्ये प्रकृतयश्च सर्वे समाजग्मुः । कालिदासमेकमनागतं वीक्ष्य राजा स्वसेवकमेकं तदाकारणाय वेश्यागृहं प्रेषयामास ।

 राजा ने स्वीकारा और कहा-'प्रिये, यह सब सत्य है। कल सवेरे ही कालिदास को संतुष्ट करूंगा।'

 दूसरे दिन दतुअन आदि करके नित्य कर्म से निपट राजा सभा में पहुँचा। पंडित, कवि, गायक और अन्य सब सामंत-सभासद आ गये । एक


  1. महेशानुरागतामित्यर्थः ।