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उपयुक्त और उचित है । यह 'काव्यविनोद' है, जो धीमन्त जनों के कालयापन के कार्य में आता था। यह वही है, जिसके द्वारा बाण भट्ट की 'कादम्बरी' का शूद्रकराज 'आवद्धविदग्धमण्डलः काव्य-प्रबन्धरचनेन' दिवस व्यतीत करता था और 'काव्यनाटकाख्यानकाख्यायिकालेख्यव्याख्यानादि क्रियानिपुण' आत्मप्रतिबिम्ब राजपुत्रों के साथ आनन्द मनाया करता था । एक अजब-सा निराश उच्छ्वास निकल पड़ता है, जब आज के नव-श्रीमन्तों के साथ क्लबों और द्यूतागारों में ताश फटकारती संध्याओं की प्रचुरता में उन बीते दिनों की याद हो आती है। कहाँ 'काव्यशास्त्रविनोद' में धीमान् जनों की व्यतीत होती वह स्पृहणीय मधुरवेला और कहाँ व्यसन, निद्रा और कलह में वीतता जाता यह कुसमय ? वे दिन शायद नहीं लौटेंगे-'ते हि नो दिवसा गताः' : पर यदि लौट आते......?
कौन थे भोज? कौन था बल्लाल ? कब था ? कहाँ था ? प्रमुख यह सब प्रश्न नहीं है, प्रमुख है वह काव्य और काव्यमर्मज्ञों की आराधना । वह भोज श्लाध्य है, जिसकी सभा में कालिदास, बाण, भवभूति आदि काव्य पारखी, काव्य के विधाता एक साथ उपस्थित होगये हैं और धन्यवादार्ह है वह संकलक बल्लाल सेन, जिसने उन प्रशंसनीय घड़ियों को कथा निगुंफित कर दिया है । इतिहास का स्थूल सत्य भले ही इसमें न हो, पर जीवन को स्पंदन देने वाले सत्यक्षण तो निश्चित ही हैं। निश्चय ही यह एक मनोरम, मनोरंजक कृति है । 'भोज प्रबंध' धीमानों के कालयापन का एक श्रेष्ठ आदर्श है । भोज ‘मोनियर विलियम्स' के अनुसार 'असाधारण गुणों का स्वामी राजा' (ए किंग विद अनकामन क्वालिटीज़ ) ही नहीं है, वह 'वेस्टोइंग इंज्वाय मेंट'-अर्पित रसास्वादन भी है।
'विद्योतिनी'-आख्या के हिंदी-भाव सहित 'भोजप्रबंध' के प्रस्तुत संस्करण को छत्तीस कथा भागों में विभक्त कर पढ़ने में अधिक सुख-सुविधा प्रतीत हुई। भावकार का यह स्वतंत्र प्रयत्न है और कथा भागों का नामकरण भी उसी की सूझ है । सूझ तो उसकी यहाँ तक है कि अनेक स्थलों पर 'भोज प्रबंध' के पुण्य श्लोकों को तुक-वेतुक, छन्द, छंदहीन पद्यों में उपस्थित करने की भी दुश्चेष्टा कर बैठा है । वह भली भांति जानता है कि यह 'प्रांशुलभ्य