पुटमेतत् सुपुष्टितम्
( ७ )
‘फल' के प्रति हास्यास्पद 'वामन की उद्वाहुता' है और उसका दुष्फल भोगने को उसे तैयार रहना है, फिर भी-मगर फिर भी। भोगने दो 'मन्द' को "कवि यशः प्रार्थी' बनने के लोभ का कुपरिणाम ।
'भोज-प्रबंध' के अनेक हिन्दी-रूप हैं; ऐसी स्थिति में ’विद्योतिनी' का उद्योगी इस उद्यम को अपना देवमंदिर की देहली पर एक वराटी चढाने का अधिकार मानता है । और यह अधिकार उसे मिलना ही चाहिए 1 कविवर मैथिलीशरण के शब्दों में-
- 'जय देवमंदिर देहली,
- समभाव से जिस पर चढ़ी--
- नृप हेम मुद्रा और रकवराटिका ।
२६-ग, हीरापुरी, गोरखपुर,
विश्वविद्यालय परिसरः
-देवर्षि सनाढ्य
वि० सं० २०३५