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भोजप्रवन्धः


मरालः–'किञ्चिद्वेदमयं पात्रं किञ्चित्पात्रं तपोमयम् ।
पात्राणामुत्तमं पात्रं शूद्रान्नं यस्य नोदरे ॥ १०७ ।।

 मराल-वेद पाठी कुछ दान का पात्र होता है और कुछ तपस्वी दान के योग्य होता है, दान पाने का उत्तम पात्र वह है, जिसके पेट में निकृष्ट अन्न नहीं होता।'

शकुन्तः - 'अनेन वित्तेन किं करिष्यति भवान् ।' शकुन्त–'आप इस धन का क्या करेंगे ?'

मरालः- सखे, काशीवासी कोऽपि विप्रवटुरत्रागात् । तेनास्मपितुः पुरः काशीवासफलं व्यावर्णितम् । ततोऽस्मत्तातो बाल्यादारभ्य चौर्य कुर्वाणो दैववशात्स्वपापान्निवृत्तो वैराग्यात्सकुटुम्बः काशीमेष्यति । तदर्थमिदं द्रविणजातम् ।'

 मराल–'मित्र, एक काशी का रहनेवाला ब्राह्मण विद्यार्थी यहाँ आया। उसने मेरे पिता के संमुख काशीवास के फल का वर्णन किया । सो बचपन से चोरी करनेवाले मेरे पिता दैववश अपने पाप से निवृत्त हो वैराग्य के कारण सकुटुम्ब काशी जायेंगे । यह सब धन उसी निमित्त है ।'

 शकुन्तः–'महद्भाग्यं तव पितुः । तथा हि-

वाराणसीपुरीवासवासनावासितात्मना ।
किं शना समतां याति वराकः पाकशासनः ।। १०८ ॥
ऊपरं कर्मसस्यानां क्षेत्रं वाराणसी पुरी।
यत्र सँल्लभ्यते मोक्षः समं चाण्डालपण्डितैः ।। १०६ ।।
मरणं मङ्गलं यत्र विभूतिश्च विभूषणम् ।
कौपीनं यत्र कौशेयं सा काशी केन मीयते ॥ ११० ॥

 शकुंत-'तेरा पिता बड़ा भाग्यशाली है । जैसा कि है-

 वाराणसी नगरी में निवास करने की इच्छा जिसके हृदय में व्याप्त है, उस कुत्ते की समता में क्या बेचारा इन्द्र आ सकता है ? .

 वाराणसी नगरी कर्म रूपी खेती के लिए ऊसर हैं ( कर्म फल के बंधन से मुक्त), जहाँ कि चंडाल और ब्राह्मण-दोनों ही समान रूप में मोक्ष प्राप्त करते है। ..

 भोज