जहाँ मृत्यु प्राप्त होना मंगल है, भस्म आभूषण है और जहाँ कौपीन ही
पाटांबर है, उस काशी की समता किससे हो सकती है ?'
एवमुभयोः संवादं श्रुत्वा राजा तुतोष । अचिन्तयच्च मनसि-- 'कर्मणां गतिः सर्वथैव विचित्रा उभयोरपि पवित्रा मतिः' इति ।
ततो राजा विनिवृत्त्य भवनान्तरे पितृपुत्रावपश्यत् । तत्र पिता पुत्रं प्राह--'इदानों परिज्ञातशास्त्रतत्त्वोऽपि नृपतिः कार्परण्येन किमपि न प्रयच्छति । किंतु-~
अर्थिनि कवयति कवयति पठति च पठति स्तवोन्मुखे स्तौति । |
राजाप्येतच्छ्रुत्वा तत्समीपं प्राप्य 'मैवं वद' इति स्वगात्रात्सर्वाभरणा- न्युत्तार्य ददौ तस्मै ।
इस प्रकार दोनों का बार्तालाप सुन कर राजा संतुष्ट हुआ और मन में सोचने लगा---'कर्मगति सब प्रकार से विचित्र होती है। दोनों की ही मति पवित्र है।
तदनन्तर राजा ने उस स्थान से हट कर एक अन्य गृह में पिता-पुत्र -को देखा। वहाँ पिता ने कहा- आजकल शास्त्रमर्म का परिज्ञानी भी राजा कृपणता के कारण कुछ देता नहीं, परं च-
याचक ( कवि ) के कविता करने पर कविता कर देता है, काव्यपाठ करने पर स्वयम् भी पढ़ देता है और प्रशंसा करने पर प्रशंसा कर देता है, किन्तु बाद में कवि के 'जाता हूँ' कहने पर चुपचाप आँखें मूंद लेता है।
राजा यह सुन उसके समीप जाकर बोला कि ऐसा न कहो, और अपने शरीर से सब आभूपण उतार कर उसे दे दिये ।
८-क्रीडाचन्द्रः |
ततो गृहमासाद्य कालान्तरे सभामुपविष्टः कालिदासं प्राह-'सखे, 'कवीनां मानसं नौमि तरन्ति प्रतिभाम्भसि ।'
ततः कविराह- 'यत्र हंसवयांसीव भुवनानि चतुर्दश' ॥११२ ॥