'चारों ओर नगर रक्षक घूम रहे हैं । इन नगाड़ों और पटहों के शब्द से सब
जग जायेंगे । सो चुराये [ माल ] को बाँट कर अपने-अपने भाग में आये धन
को लेकर शीघ्र ही चला जाना उचित होगा।'
मरालः प्राह-'सखे, त्वमनेन कोटिद्वयपरिमितमणिकनकजातेन किं करिष्यसि' इति ।
मराल ने पूछा--'मित्र, तू इस दो करोड़ परिमाण के मणि और सोने से क्या करेगा?
शकुन्तः--'एतद्धनं कस्मैचिद्विजन्मने दास्यामि यथायं वेदवेदाङ्गपारगोऽन्यं न प्रार्थयति ।'
शकुंत--यह धन किसी ब्राह्मण को दे दूंगा कि वह वेद और वेदांग का पारंगत होकर किसी और से न मांगेगा। मरालः-'सखे चारू।
ददतो युध्यमानस्य पठतः पुलकोऽथ चेत् । |
मराल--'मित्र, सुंदर । दान करते, युद्ध करते और काव्य पाठ करते समय यदि अपने और दूसरो के रोंगटे खड़े हो जाये तभी वह दान, पराक्रम और पाठ कहा जाता है।
तो इस [ चोरी के ] दान से तुमको पुण्यफल कैसे मिलेगा?' |
करते हो?'
शकुन्तः--मूर्खो नहिं ददात्यर्थं नरो दारिद्रयशङ्कया। |
शकुंत--'मूर्ख मनुष्य दरिद्रता की शंका से धन-दान नहीं करता और बुद्धिमान् पुरुष भविष्य में आनेवाली दरिद्रता के निवारणार्थ धन वितरण कर देता है।'