पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/५४

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति
४७
भोजप्रवन्धः

 दरिद्रता रूपी आग की जलन तो संतोष के जल से शांत हो गयी है, किंतु माँगनेवालों की आशा नष्ट कर देने से जो अंतर्दाह है, उसका उपशमन किसके द्वारा हो ?

 राजा चैतस्सर्वं श्रुत्वा 'नेदानी किमपि दातुं योग्यः । प्रातरेव बाणं पूर्णमनोरथं करिष्यासि ।' इति निष्क्रान्तो राजा-

'कृतो यैर्न च वाग्मी च व्यसनी तं न यैः पदम् ।
यैरात्मसदृशो नार्थी किं तैः काव्यैवलैर्धनैः ॥ १०४ ॥

  राजा ने यह सब सुनकर विचारा कि इस समय तो मैं इसे कुछ देने योग्य हूँ नहीं, प्रातः काल इसका मनोरथ पूर्ण करूंगा-और चला गया-

 जिस काव्य ने मनुष्य को वक्तृत्व कला में निपुण नहीं बनाया, जिस बल ने किसी को अधीन--स्ववश--नहीं किया और जिस धन ने याचक को अपने समान ( धनी ) नहीं कर दिया, वह काव्य, बल और धन व्यर्थ है ।

 एवं पुरे परिश्रममाणो राजनि वर्त्मनि चोरद्वयं गच्छति । तयोरेकः प्राह शकुन्तः-'सखे,स्फारान्धकार विततेऽपि जगत्यञ्जनवशात्सर्वं परमा- णुप्रायमपि वसु सर्वत्र पश्यामि । परन्तु सम्भारगृहानीतकनकजातमपि न मे सुखाय' इति ।

 जब राजा इस प्रकार नगर में भ्रमण करते फिर रहे थे, तो मार्ग में दो चोर जा रहे थे। उनमें से एक शकुंत नामक चोर बोला--'मित्र, जगत् में घोर अँधेरा फैला होने पर भी अंजन लगा होने के कारण परमाणु जैसी भी छोटी सब वस्तुएँ सर्वत्र देख पा रहा हूँ किंतु कोषागार से चुरा लिया हुआ स्वर्ण भी मुझे सुख नहीं दे रहा है।'

 द्वितीयो मरालनामा चोर आह--'आहृतं सम्भारगृहात्कनकजातमपि न हितमिति कल्माद्धेतोरुच्यते' इति । ततः शकुन्तः प्राह-'सर्वतो नगररक्षकाः परिभ्रमन्ति । सर्वोऽपि जागरिष्यत्येषां भेरीपटहादीनां निनादेन । तस्मादाहृतं विभज्य स्वस्वभागगतं धनमादाय शीघ्रमेव गन्तव्यम्' इति।

 दूसरे मराल नाम के चोर ने कहा-'खजाने से चुरा लाया गया सोना भी अच्छा नहीं लगता-ऐसा किस कारण से कहते हो?' तो शकुंत वोला-- .