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पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/५१

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भोजप्रबन्धः


अयं मे वाग्गुम्फो विशदपदवैदग्ध्यमधुरः
स्फुरद्बन्धोबन्ध्यः परहृदि कृतार्थः कविहृदि ।
कटाक्षो वामाक्ष्या दरदलितनेत्रान्तगलितः
कुमारे निःसारः स तु किमपि यूनः सुखयति ॥६६॥ इति ।

 वुनफर बोला-'देव, मैं कालिदास के अतिरिक्त किसी को कवि नहीं मानता। तेरी सभा में काव्य के मर्म को जानने वाला विद्वान् कालिदास के अतिरिक्त कौन है ?

 गुरु-कृपारूपी अमृतपाक से उत्पन्न जो सरस्वती वैभव ( काव्य ) है, वह 'कवि को ही प्राप्त होता है, हठपूर्वक कविता पाठ करके प्रतिष्ठा पालने वालों को नहीं । तालाब में दिन भर लोट कर भी केवल सलिल-प्रवाह गॅदला करने वाला मैंसा क्या कमलों की सुगंध प्राप्त कर पाता है ?

 उत्तम पदों की विद्वत्तापूर्ण योजना से मधुर, छंदो लालित्य प्रकट करता मेरा काव्यबंध कवि के हृदय को आकृष्ट कर कृतार्थ होता है, अतिरिक्त जन के निकट वह व्यर्थ होता है । अधखुले नयनों की कोर से अद्भुत तिरछे नयनों वाली सुंदरी का कटाक्ष बालक के निकट सारहीन रहता है किंतु तरुण को वह आनंद देता है।

 विद्वज्जनवन्दिता सीता प्राह--

विपुलहृदयाभियोग्ये खिद्यति काव्ये जडो न मौर्ख्ये स्वे ।
निन्दति कञ्चुकमेव प्रायः शुष्कस्तनी नारी ॥ १७ ॥

 विद्वानों द्वारा पूजित सीता ने कहा--मूर्ख अपनी मूर्खता पर तो खिन्न नही होता, सहृदयों द्वारा गम्य सत्काव्य पर खिन्न होता है । शुष्क स्तन वाली स्त्री प्रायः चोली की ही निंदा किया करती है ।

 ततः कुविन्दः प्राह--

वाल्ये सुतानां स्तुतौ कवीनां समरे भटानाम् ।
त्वंकारयुक्ता हि गिरः प्रशस्ताः कस्ते प्रभो मोहभरः स्मर स्वम् ।। ६८ ॥

 ततो राजा 'साधु भोः कुविन्द' इत्युक्त्वा तस्याक्षरलक्षं ददौ । 'मा भैषीः, इति पुनः कुविन्दं प्राह ।