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भोजप्रवन्धः


काव्यं करोमि नहि चारुतरं करोमि
 यत्नात्करोमि यदि चारुतरं करोमि ।
भूपालमौलिमणिमण्डितपादपीठ
हे साहसाङ्क कवयामि वयामि यानि ॥ ६४ |

 तव बुनकर राज भवन में पहुंच कर राजा को प्रणाम करके बोला- 'महाराज, आपका मंत्री मुझे मूर्ख समझ कर घर से निकाल रहा है, तो तू.' देख कि मैं मूर्ख हूँ या पंडित~

 काव्य रचता हूँ, पर सुंदर नहीं रचता और यदि प्रयत्नपूर्वक रचता हूँ तो सुंदर भी रच लेता हूँ। राजाओं की मुकुट मणियों से सुशोभित चरण पीठ वाले हे महावीर, मैं कविता करता हूँ और बुनाई करता हूँ; और (अब) जाता हूँ।'

 ततो राजा त्वङा्कारवादेन वदन्तं कुविन्दं प्राह- ललिता ते पदपङ्क्तिः, कवितामाधुर्य च शोभनम् , परन्तु कवित्वं विचार्य वक्तव्यम्' इति । ततः कुपितः कुविन्दः प्राह - 'देव अत्रोत्तरं भाति किन्तु न वदामि । राजधसः पृथग्विद्वद्धर्मान्' इति । राजा प्राह-'अस्ति चेदुत्तर ब्रूहि इति ।

 तब राजा ने 'तू' शब्द से संबोधित करने वाले बुनकर से कहा---'तेरे पद की पंक्ति ललित है, कवितामाधुरी भी सुंदर है, परंतु काव्य विचार करके सुनाना चाहिए ।' तब कुपित हो वुनकर बोला-'महाराज, मुझे इसका उत्तर आता है, परंतु कह नहीं रहा हूँ। राजा का धर्म विद्वान् के धर्म से भिन्न है ।' राजा ने कहा-'यदि है तो उत्तर दे ।'

 कुविन्दः प्राह-~देव, कालिदासादृतेऽन्यं कवि न मन्ये । कोऽस्ति ते सभायां कालिदासादृते कवितातत्त्वविद्विद्वान् ।

यत्सारस्वतवैभवं गुरुकृपापीयूषपाकोद्भवं
तल्लभ्यं कविनैव नैव हठतः पाठप्रतिष्टाजुषाम् ।
कासारे दिवसं वसन्नपि पयःपूरं परं पङ्किलं
कुर्वाणः कमलाकरस्य लभते कि सौरभ [१] सैरिमः ॥ ६५ ।।

(१) "लुलायो महिपो वाहद्विपत्कासरसैरिमाः" इत्यमरात् महि इत्यर्थः ।

  1. (१)