नीरक्षीरे गृहीत्वा निखिलखगततीर्याति नालोकजन्मा |
हे पृथ्वीपति, नरेश भोजराज, तीनों लोकों में तुम्हारी कमनीय कीर्तिरूपी कांता व्याप्त हो गयी है ( परिणाम स्वरूप त्रिलोकी शुभ्र होगया है)। सो नालीक-कमल से जन्म लेने वाले ब्रह्मा नीर-क्षीर लिये समस्त पक्षियों के पास जा रहे हैं [ जिससे वे नीर क्षीर विवेकी हंस को पहिचान सकें]; चक्रपाणि विष्णु [ चक्र छोड़ ] तक्र [ माठा ] हाथ में लिये संपूर्ण समुद्रों में घूम रहे हैं [ जिससे माठा छोड़कर वे दूध फाड़ सकें और इस प्रकार सब समुद्रों के मध्य उन सबके श्वेत हो जाने से छिप गया उनका क्षीर समुद्र मिल सके] । पशुपति शिव अपने ज्वालामय तृतीय नेत्र से देखते हुए सब ऊँचे पर्वतों को तपा रहे हैं [ कि हिम पिघलने से पिघलते हुए अपने कैलास को वे पहिचान सकें।
विद्वाजशिखामणे तुलयितुं धाता त्वदीयं यशः |
विद्वानों और राजाओं की चोटी में स्थित मणि स्वरूप [श्रेष्ठ ] राजन्, विधाता ने तुम्हारे यश की तौल करने के निमित्त कैलास को निरखा, पर उसमें हल्कापन पाकर पूरा करने के लिए उसके ऊपर नंदी को रखा, नंदी पर उमासहित महेश को बैठाया, महेश के सिर पर जलमयी गङ्गा की स्थापना की, चोटी पर नागराज को स्थित किया और अंत में सबके ऊपर कांतिमान् अमृत किरण चंद्रमा को रख दिया ।
स्वर्गाद्गोपाल कुत्र व्रजसि सुरमुने भूतले कामधेनो-
र्वत्सस्यानेतुकामस्तृणचयमधुना मुग्ध दुग्धं न तस्याः ।
श्रुत्वा श्रीभोजराजप्रचुरवितरणं व्रीडशुष्कस्तनी सा
(१) उक्षाणम्--वृषभम् ।
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