तदनंतर धीरे-धीरे भोज और कालिदास में प्रीति हो गयी।
४-कालिदासेन भोजः प्रशंसितः |
ततः कालिदासं वेश्यालम्पट ज्ञात्वा तस्मिन्सर्वे द्वेषं चक्रुः । न कोऽपि तं स्पृशति । अथ कदाचित्सभामध्ये कालिदासमालोक्य भोजेन मनसा चिन्तितम्--'कथमस्य प्राज्ञस्यापि स्मरपीडाप्रमादः' इति। सोऽपि तदभिप्रायं ज्ञात्वा प्राह--
'चेतोभुवश्चापलताप्रसङ्गे का वा कथा मानुषलोकभाजाम् । |
तत्पश्चात् कालिदास को वेश्यागामी जानकर सब उससे द्वेष करने लगे। उसका स्पर्श भी कोई न करता था। कभी सभा के मध्य कालिदास को देखकर भोज मन ही मन विचारने लगा---'ऐसे प्रकृष्ट विद्वान् को भी कामपीडा क्यों है ?' कालिदास ने उसका अभिप्राय समझ कर कहा-
मनसिज काम की चंचलता के आगे मनुष्यलोक के निवासियों की तो कथा ही क्या है, जब कि कामदहन करने वाले त्रिपुरजयी शिव का ही वह विख्यात पौरुष [काम के संदर्भ में ] आधा रह गया था। संतुष्ट होकर राजा भोज ने प्रत्येक अक्षर पर लाख-लाख दिया।
ततः कालिदासो भोज स्तौति-- |
तदनंतर कालिदास ने भोज की स्तुति की--
हे श्रीमन् महाराज, तुम्हारे यश से समग्न संसार के शुभ्र हो जाने पर संप्रति ये पुरुषोत्तम विष्णु क्षीर समुद्र का अन्वेषण करते हैं, जटाजूटधारी शिव. कैलास का, वज्रधर इंद्र दिव्य गजवर ऐरावत का, राहु चंद्रमा का और कमलवासी ब्रह्मा अपने वाहन हँस का।