पढ़ा-'घी-पड़ी दाल के साथ ।' [एक श्लोक के दो चरण-पूर्वार्द्ध तो हुआ,
पर ] उत्तरार्द्ध की स्फुरणा नहीं हुई।
ततो देवताभवनं कालिदासः प्रणामार्थमगात् । तंवीक्ष्य द्विजा ऊचुः-'अस्माकं समग्रवेदविदामपि भोजः किमपि नार्पयति । भवादृशां हि यथेष्ट दत्ते । ततोऽस्माभिः कवित्वविधानधियानागतम् । चिरं विचार्य्य
पूर्वाधमभ्यधाथि, उत्तरार्धं कृत्वा देहि । ततोऽस्मभ्यं किमपि प्रयच्छति।' इत्युक्त्वा तत्पुरस्तादर्धमभाणि । स च तच्छ्रुत्वा ।
'माहिषं च शरच्चन्द्रचन्द्रिकाधवलं दाधि' ॥८६॥ |
इत्याह ।
इसी बीच देवमंदिर में प्रणाम करने के लिए कालिदास आ पहुँचे । उन्हें देखकर वे ब्राह्मण बोले-'हम संपूर्ण वेदों के ज्ञाताओं को भी भोज कुछ नहीं देता, आप जैसों को यथेच्छ देता है । सो कविता बनाने की इच्छा से हमलोग यहाँ आये हैं । बहुत देर तक सोच-विचार कर [ श्लोक का ] पूर्वार्द्ध तो बना लिया है, उत्तरार्द्ध तुम बना दो। तो राजा हमको भी कुछ देगा।' यह कह कर कालिदास के संमुख आधा [ स्वनिर्मित श्लोक ] पढ़ दिया । कालिदास ने वह सुनकर उत्तरार्द्ध कह सुनाया-
'शरत् काल के चंद्र की चाँदनी के समान शुभ्र भैस का दही भी।'
ते च राजभवनं गत्वा दौवारिकानूचुः--'वयं कवितां कृत्वा समा- गताः । राजानं दर्शयत' इति । ते च कौतुकाद्धसन्तो गत्वा राजानं प्रण- म्य प्राहु:---
'राजमाषनिमर्दन्तः कटिविन्यस्तपाणयः। |
वे [ब्राह्मण ] राज भवन में पहुँच कर द्वारपालों से बोले-'हम कविता करके आये है । राजा का दर्शन कराओ।' द्वारपाल कौतुक से हँसते हुए राजा को प्रणाम करके बोले-
हे राजेंद्र, राजमाँ [बड़ा काला उड़द ] के समान दांतों वाले, कमर पर [ अभद्रता से ] हाथ रखे, श्लोकों के शत्रु तुक्कड़ वेद पाठी द्वार पर प्रतीक्षा कर रहे हैं।