पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१८

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१० भोजप्रबन्धः तैलेः सदोपयुक्तां दीपशिखां विदलयति हि (१) वातालिः ॥२६॥ देव, पुत्रवधः क्वापि न हिताय ।' .. और भी है कि इसके मारे जाने पर बूढ़े राजा सिंधुल के. अत्यंत प्रेमपात्र वे महान् वीरगण, जो इस समय आपके आज्ञापालक हैं, आपके नगर का वैसे ही 'नाश कर देंगे, जैसे कि ऊँची-ऊँची तरङ्गोवाले समुद्र नगर को डुबा डालते हैं। वहुत समय से आपकी जड़ जम जाने पर भी नगरवासियों का अधिकांश भोज को ही राजा मानता है । इसके अतिरिक्त पुण्यकर्म होने पर भी अन्याय संपत्ति का हरण करता ही है, तेल से पूर्ण दिए की लौ को प्रवल वायु वुझा देती है। महाराज, पुत्र का वध किसी के लिए भला नहीं होता।' इत्युक्तं वत्सराजवचनमाकर्ण्य राजा कुपितः प्राह-- त्वमेव राज्या- धिपतिः, न तु सेवकः। स्वाम्युक्ते यो न यतते स भृत्यो (२) भृत्यपाशकः । तज्जीवनमपि व्यर्थ मजागलकुचाविव' ।। २७ ।। इति । ततो वत्सराजः कालोचितमालोचनीयम्' इति मत्वा तूष्णीं बभूव । वत्सराज के इन वचनों को सुनकर क्रुद्ध होकर राजा बोला- तू राज्य का स्वामी ही है, सेवक नही । जो स्वामी का, कहा नहीं करता, वह सेवक नीच सेवक है । बकरी के गले के स्तनों की भांति उसका जीवन भी व्यर्थ है।" 'समय के अनुसार ही कार्य करना चाहिए,' यह विचार कर वत्सराज चुप होगया। ... अथ लम्बमाने दिवाकर उत्तुङ्गसौधोत्सङ्गादवतरन्तं कुपितमिव कृतान्तं वत्सराज वीक्ष्य समेता अपि विविधेन मिषेण स्वभवनानि प्र पुर्भीताः सभासदः। ततः स्वसेवकान् स्वागारपरित्राणार्थ प्रेषयित्वा रथं भुवनेश्वरीभवनाभिमुखं विधाय भोजकुमारोपाध्यायाकारणाय प्राहिणोदेकं वत्सराजः । स चाह पण्डितम्-तात' त्वामाकारयति वत्सराज.' इति । सोऽपि तदाकर्ण्य वज्राहत इव, भूताविष्ट इव, ग्रहग्रस्त इव, तेन सेवकेन (१) पवनसमुदायः । (२) कुत्सितभृत्य इत्यर्थः ।