भोजप्रवन्धः , राम तीनों लोकों के राजा थे और वसिष्ठ ब्रह्मपुत्र । उन्होंने राम राज्या- भिषेक के अवसर पर मुहूर्त तो बताया ही था। उस मुहूर्त-शोधन के फलस्वरूप राम तो अपनी धरती से रहित हो वन पहुंचे, सीता का अपहरण हुआ और विरंचि ( ब्रह्मा ) के पुत्र का वचन व्यर्थ हुआ । हे राजश्रेष्ठ, यह कौन न कुछ जाननेवाला, पेटपालू उत्पन्न हो गया, जिसके कहने से कामदेव के समान कुमार को आप मार डालना चाहते हैं ? किञ्च किं नु मे स्यादिदं कृत्वा किं नु मे स्यादकुर्वतः । इति सञ्चिन्त्य मनसा प्राज्ञः कुर्वीत वा न वा ॥ २३ ॥ उचितमनुचितं वा कुर्वता कार्यजातं परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन । अतिरभसकृतानां कर्मणामाविपत्ते- र्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः ॥ २४ ॥ अधिक क्या कहूँ-यह करके मेरा क्या होगा ओर न करके क्या होगा, यह भली भाँति विचार करके बुद्धिमान् नर को करना अथवा न करना उचित है । उचित अथवा अनुचित किसी कार्य को करते समय पंडित मनुष्य को प्रयत्न पूर्वक उसके परिणाम का विचार कर लेना चाहिए। जो कार्य अत्यंत शीघ्रता में कर लिये जाते हैं, उनका फल विपत्तियों से परिपूर्ण और वाण के समान हृदय में गड़ कर दाह उत्पन्न करनेवाला होता है । किञ्च-येन सहासितमशितं हसितं कथितं च रहसि विश्रब्धम् । तं प्रति कथमसतामापे निवर्तते चित्तमामरणात् ॥ २५ ॥ और क्या कहूँ जिसके साथ बैठे, खाया-पिया, हँसी-दिल्लगी की, एकांत में विश्वासपूर्वक कहा-सुना, उससे तो दुष्टों का भी मन मरण पर्यंत किसी दशा में नहीं हट पाता। किञ्च-अस्मिन् हते वृद्धस्य राज्ञः सिन्धुलस्य परमप्रीतिपात्राणि महावीरास्तवैवानुमते स्थिताः, ते त्वन्नगरमुल्लोलकल्लोलाः पयोधरा इव प्लावयिष्यन्ति । चिराद्वद्धमूलेऽपि त्वयि प्रायः पौरा भोजं भुवो भर्तारं भावयन्ति । किञ्च-सत्यपि च सुकृतकर्मणि दुर्नीतिश्चेच्छ्रियं हरत्येव ।
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