ततः कविराह-
'अम्बा कुप्यति न मया न स्नुषया सापि नाम्बया न मया। |
इति । राजा च दारिद्रयदोषं ज्ञात्वा कविं पूर्णमनोरथं चक्रे ।
तव कवि ने कहा-
माँ क्रोध करती है, पर न मुझ पर न अपनी पतोहू ( मेरी पत्नी) पर; और वह ( मेरी पत्नी ) भी न माँ पर क्रोध करती है, न मुझ पर; और मैं न माँ पर क्रोध करता हूँ, न पत्नी पर; तो हे राजा, आप ही कहो कि यह दोष किसका है ?
और राजा ने दरिद्रता का दोष समझा और कवि का मनोरथ पूर्ण कर दिया।
( २६ ) राज्ञः सर्वस्वदानम् |
एकदा द्वारपाल आगत्य राजानं प्राह-'देव, कविशेखरो नाम महाकविर्द्वारि वर्तते । राजा-'प्रवेशय' इत्याह ।।
एक बार द्वारपाल आकर राजा से बोला-'महाराज, कवि शेखर नाम का महाकवि द्वार पर उपस्थित है ।' राजा ने कहा--प्रविष्ट कराओ।'
ततः कविरागत्य 'स्वस्ति' इत्युक्त्वा पठति- |
तब कवि ने आकर स्वस्ति' कहा और पढ़ा-
हे राजा, वारण (वाधा) मुझे द्वारपाल से ही प्राप्त हो चुका है; हे जगत् के स्वामी, मैं तुम से मद युक्त वारण ( हाथी ) चाहता हूँ।
तदा प्राङ्मुखस्तिष्ठन्राजांतिसन्तुष्टस्तं प्राग्देशं सर्वं कवये दत्तं मत्या दक्षिणाभिमुखोऽभूत् । ततः कविश्चिन्तयति--'किमिदम् । राजा मुखं परावृत्य मां न पश्यति' इति ।