कालिदास को अनदेखे आभूषण कर्णफूल के पतन का ज्ञाता होने के कारण
विशेष रूप से संमानित किया।
(२६) अदृष्टबोधय अन्याः कथा: |
ततः कदाचिच्चित्रकर्मावलोकनतत्परो राजा चित्रलिखितं महाशेषं दृष्ट्वा 'सम्यग्लिखितम्' इत्यवदत् । तदा कश्चिच्छिवशर्मा नाम कविः शेषमिषेण राजानं स्तौति--
अनेके फणिनः सन्ति भेकमक्षणतत्पराः । |
तदानी राजा तदभिप्रायं ज्ञात्वा तस्मै लक्षं ददौ ।
कभी चित्रकारी देखने में लगे राजाने चित्र में वने महाशेष नाग को देख कर कहा कि अच्छा चित्र बना है। तो किसी शिवशर्मा नामक कवि ने शेष- नाग के व्याज से राजा की स्तुति की--
मेढकों को खाने में लगे बहुत-से हैं धरती पर साँप । किंतु धरणी-धारणा में शक्त एक ही शेषनाग फणिराज। . (मेंढकों को खाने में लगे रहने वाले तो अनेक सर्प हैं, परंतु धरती को धारने में समर्थ एक यह शेष नाग ही है।)
तब उसका अभिप्राय जान कर उस समय राजाने उसे एक लाख मुद्राएँ दीं।
कदाचिद्धेमन्तकाले समागते ज्वलन्तीं [१] हसन्ती संसेवयन्राजा कालिदासं प्राह---'सुकवे, हसन्तीं वर्णय' इति । ततः सुकविराह--
'कविमतिरिव बहुलोहा सघटितचक्रा प्रभातवेलेव । |
राजाक्षरलक्षं ददौ।
कभी हेमंत ऋतु के आ जाने पर जलती अंगीठी पर तापते हुए राजा ने कालिदास से कहा-'हे सुकवि, अंगीठी का वर्णन करो।' तव सुकवि ने कहा-
यह हंसती जैसे कवि की बुद्धि बहुलोहा ( बहुल+ऊहा-अनेक प्रकार की कल्पना करने वाली) होती है, वैसे ही बहुलोहा ( वहुत सा लोहा है
- ↑ (१)