विदितं ननु कन्दुक ते हृदयं प्रमदाधरसङ्गमलुब्ध इव । वनिताकरतामरसाभिहतः पतितः पतितः पुनरुत्पतसि ॥ २६७ ।। |
तो भवभूति ने कहा-
हे कंदुक, तुम्हारे हृदय की भावना ज्ञात ही है--तुम सुंदरी के अधर का
संगम करने के लोभी प्रतीत होते हो, इसी से सुंदरी के कर कमल से ताडित होने पर गिर-गिर कर पुनः पुनः उछलते हो।
ततो वररुचिः प्राह--
एकोऽपि त्रय इव भाति कन्दुकोऽयं |
तव वररुचि ने कहा-
सुंदरी की हथेली की लालिमा से लाल-लाल, धरती पर गिरा होने की अवस्था में उसके चरण-नखों के किरणजाल से शुभ्र और सामान्य स्थिति में आँखों की पुतलियों की नीलिमा से नीला-नीला---यह कंदुक एक होने पर भी तीन जैसा प्रतीत होता है।
ततः कालिदास आह---
'पयोधराकारधरो हि कन्दुका करेण रोषाद भिहन्यते मुहुः । |
तब कालिदास ने कहा-
क्योंकि इस कंदुक ने सुंदरी के पयोघरों का आकार-धारण किया, अतएव बार-बार यह उस सुंदरी के कर द्वारा रोष के कारण ताडित किया जाता है। इसी से यह नयनों के आकार से डरे कमल के समान कर्ण भूषण सुंदरी को प्रसन्न करने के निमित्त पैरो पर गिर पड़ा है।
तदा राजा तुष्टस्त्रयाणामक्षरलक्षं ददौ। विशेषेण च कालिदासम- दृष्टावतंसकुसुमपतनवोद्धारं सम्मानितवान् ।
तब राजा ने संतुष्ट होकर तीनों को प्रत्यक्षर पर लाख-लाख मुद्राएँ दीं।