पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१३९

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भोजप्रबन्धः


क्रूरक्रेङ्कृतिनिर्भरां गिरमिह स्थाने वृथैवोद्गिर-
न्मूर्ख ध्वाङ्क्ष न लज्जसेऽप्यसदृशं पाण्डित्यमुन्नाटयन् ॥२६॥

 उसी समय उस वृक्ष की ( जिसके नीचे भोज विश्राम कर रहे थे ) एक शाखा पर काँउ-कांउ करते कौए और दूसरी डाली पर कूकती कोयल को देखकर देवजय नामक कवि ने कहा-

 न तो तेरे सुंदर पैर हैं और न चोंच; न मधुरी वाणी है, न लीला- मनोरम गति और न पावन पंख ही। अरे मूर्ख काक, इस स्थान पर केवल कर्कश काउ-काउ-भरी वाणी व्यर्थ उच्चारते और. बेतुकी पंडिताई का नाट्य करते तुझे लज्जा नहीं आती?

 तत एनां देवजयकविना काकमिषेण विरचितां स्वगर्हणां मन्यमानत्स्तस्पर्धालुर्हरिशर्मा नाम कविः कोपेनेेर्ष्यापूर्वं प्राह-

'तुल्यवर्णच्छदः कृष्णः कोकिलैः सह सङ्गतः ।
केन व्याख्यायते काकः स्वयं यदि न भाषते' ।। २६६ ॥

 तब देवजय कवि द्वारा काक के व्याज से रचित इस ( पद योजना ) से अपना अपमान मानता हुआ उससे स्पर्धा करनेवाला हरि शर्मा नाम का कवि ईर्ष्या पूर्वक क्रोध से बोला-

 एक जैसे रंग और पंखों वाले, कोकिल कुल की संगति में रहनेवाले काले कौए को कौन पहिचान पाता यदि वह स्वयं न बोलता?

 ततोराजा तयोर्हरिशर्मदेवजययोरन्योन्यवैरं ज्ञात्वा मिथ आलिङ्गनादिवस्त्रालङ्कारादिदानेन च मित्रत्वं व्यधात् ।

 तो राजा ने हरि शर्मा और देवजय नामक उन कवियों का परस्पर वैर जानकर दोनों को गले मिलवा कर और वस्तु आभूषणादि देकर उनमें मित्रता करा दी।

(२२) विदुषां काशीगमनम्

 अन्यदाराजा यानमारुह्य गच्छन्वर्त्मनि कञ्चित्तपोनिधिं दृष्ट्वा तं प्राह- 'भवादृशानां दशनं भाग्यायत्तम् । भवतां क्व स्थितिः । भोजनार्थ के वा प्रार्थ्यन्ते' इति । .