क्रूरक्रेङ्कृतिनिर्भरां गिरमिह स्थाने वृथैवोद्गिर- |
उसी समय उस वृक्ष की ( जिसके नीचे भोज विश्राम कर रहे थे ) एक शाखा पर काँउ-कांउ करते कौए और दूसरी डाली पर कूकती कोयल को देखकर देवजय नामक कवि ने कहा-
न तो तेरे सुंदर पैर हैं और न चोंच; न मधुरी वाणी है, न लीला- मनोरम गति और न पावन पंख ही। अरे मूर्ख काक, इस स्थान पर केवल कर्कश काउ-काउ-भरी वाणी व्यर्थ उच्चारते और. बेतुकी पंडिताई का नाट्य करते तुझे लज्जा नहीं आती?
तत एनां देवजयकविना काकमिषेण विरचितां स्वगर्हणां मन्यमानत्स्तस्पर्धालुर्हरिशर्मा नाम कविः कोपेनेेर्ष्यापूर्वं प्राह-
'तुल्यवर्णच्छदः कृष्णः कोकिलैः सह सङ्गतः । |
तब देवजय कवि द्वारा काक के व्याज से रचित इस ( पद योजना ) से अपना अपमान मानता हुआ उससे स्पर्धा करनेवाला हरि शर्मा नाम का कवि ईर्ष्या पूर्वक क्रोध से बोला-
एक जैसे रंग और पंखों वाले, कोकिल कुल की संगति में रहनेवाले काले कौए को कौन पहिचान पाता यदि वह स्वयं न बोलता?
ततोराजा तयोर्हरिशर्मदेवजययोरन्योन्यवैरं ज्ञात्वा मिथ आलिङ्गनादिवस्त्रालङ्कारादिदानेन च मित्रत्वं व्यधात् ।
तो राजा ने हरि शर्मा और देवजय नामक उन कवियों का परस्पर वैर जानकर दोनों को गले मिलवा कर और वस्तु आभूषणादि देकर उनमें मित्रता करा दी।
(२२) विदुषां काशीगमनम् |
अन्यदाराजा यानमारुह्य गच्छन्वर्त्मनि कञ्चित्तपोनिधिं दृष्ट्वा तं प्राह- 'भवादृशानां दशनं भाग्यायत्तम् । भवतां क्व स्थितिः । भोजनार्थ के वा प्रार्थ्यन्ते' इति । .