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पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१३८

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भोजप्रबन्धः (२१) देवजयहरिशर्मणोः स्पर्धा अन्यदा राजा दीर्घकालं जलकेलिं विधाय परिश्रान्तस्तत्तीरस्थवटविटपिच्छायायां निषण्णः । तत्र कश्चित्कविरागत्य प्राह- 'छन्नं सैन्यरजोभरेण भवतः श्रीभोजदेव क्षमा- रक्षादक्षिण दक्षिणक्षितिपतिः प्रेक्ष्यान्तरिक्ष क्षणात् । निःशङ्को निरपत्रपो निरगुनो निर्बान्धवो निःसुह्रन्- निस्त्रीको निरपत्यको निरनुजो निहाँटको निर्गतः॥२६॥ और एक बार वहुत समय तक जल क्रीडा करके थका राजा सरोवर के तटवर्ती वृक्ष की छाया में बैठा था । वहाँ कोई कवि आकर वोला--- क्षमा और रक्षा करने में एक सम श्री भोजदेव, आपकी सेना से उड़ी धूल से ढके नभ को देखकर दक्षिण की धरती का स्वामी शंका त्याग, लज्जा त्याग, अनुचरहीन, बंधुहीन, मित्र और पत्नी हीन, संतति और भ्रातृ हीन, छोड़कर सोना, धन, संपति शीघ्रतया भाग गया। अकाण्डधृतमानसव्यवसितोत्सवैः सारसै- रकाण्डपटुताण्डवैरपि शिखिण्डिनां मण्डलैः। दिशः समवलोकिताः सरसनिर्भरप्रोल्लस- द्भवत्पृथुवरूथिनीरजनिभूरजः श्यामलाः ॥ २६७ ।। ततो राजा लक्षद्वयं ददौ । और क्या कहूँ ?~-मानसर में सारस अकारण ही ( वर्षा आयी समझ ) उत्सव मनाने लगे; अकारण ही ( मेघागम समझ ) मयूर मंडली ने नृत्य चातुरी दिखानी आरब्ध कर दी;-हुआ यह कि उत्साह और उल्लास से परिपूर्ण आपकी विशाल सेना के संचरण से धूलि उड़ने के कारण रात-सी प्रतीति कराती दिशाएँ श्यामल दीखने लगीं। तो राजा ने दो लाख मुद्राएँ दीं। तदानीमेव तस्य शाखायामेकं काकं रटन्तं प्रेक्ष्य कोकिलं चान्यशाखायां कूजन्तं वीक्ष्य देवजयनामा कविराह- 'नो चारू चरणौ न चापि चतुरा चञ्चूर्न वाच्यं वचो नो लीलाचतुरा गतिर्न च शुचिः पक्षग्रहोऽयं तव । - ..